दिल्ली सरकार की मैथिली-भोजपुरी अकादमी के सौजन्य से प्रदर्शित यह प्रदर्शनी कई मायनों में अलग थी क्योंकि इसमें पारंपरिक मैथिली और भोजपुरी कलाकारों ने हिस्सा लिया था। एक ओर जहां गोदावरी दत्त जैसी प्रतिष्ठित कलाकार की कलाकृति प्रदर्शित की गयी थी, वहीं रवींद्र दास, उमेश कुमार, दिनेश कुमार राय, राजेश राय, प्रेरणा झा, नरेंद्रपाल सिंह, संजीव सिन्हा, उदय पंडित, त्रिभुवन देव, संजू दास, राजीव रंजन और शरद कुमार जैसे कलाकारों के भी कामों को राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान के लिए प्लेटफार्म मिला। हालांकि यह और बात है कि इस मौके पर प्रदर्शित अधिकतर कलाकारों की कलाकृतियां न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर सराही जा चुकी हैं।
बिहार के सुबोध गुप्ता अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके हैं वहीं इस प्रदर्शनी में कई ऐसे कलाकारों की भी मौजूदगी रही जिनकी तरफ कला-संग्राहकों का ध्यान जाना गया होगा। युवा कलाकार और पेंटर उमेश कुमार की सक्रियता और पहल के कारण ही इस भौगोलिक इलाके के कलाकार ‘रंगपूर्वीं’ के बहाने एक व्यापक मंच के जरिये सामने आये।
राजेश राय का एक मूर्तिशिल्प अपनी सरलता और रचनात्मकता लिए हुए है क्योंकि अपनी कलाकृति के जरिये उन्होंने एक संदेश देने का काम किया है कि कैसे संगठित होने से बकरियां भी शेर बन जाती हैं। अमरेश कुमार की शिल्पकृति के रूप में एक पुरानी अलमारी की दीवार को लगाया गया था और इसका नाम था ‘मैं’। एक अद्भुत नमूना था। उमेश कुमार ने पेंटिंग ‘लोनलीनेस’ के जरिये पालने में एक शिशु को दिखाया। युवा कलाकार शरद कुमार ने एक इंस्टॉलेशन को प्रदर्शित किया था ,जो इंस्टॉलेमन जैसी उत्तर आधुनिक विधा को बखूबी प्रदर्शित करने का काम है। 1930 में जन्मीं गोदावरी दत्त की कृति का नाम ‘अनंतवासुकी’ था जो काफी जटिल संरचना प्रदर्शित करती है। आठ बड़े-बड़े सर्प, एक चाकौर-सी आकृति, नीचे के आधे हिस्से में उनकी आठ पूंछ और उनकी बड़ी-बड़ी आंखें कला के एक नये आयामों को छूती दिखाई दे रही थीं।
इस मौके पर उदय पंडित की कला को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है। फाइबर ग्लास से बना सफेद पेड़ और सूखा ठूंठ, और फिर छोटी-बड़ी सफेद पोटलियों से लदी कृति एक अलग ही मायने बिखेर रही थी। संजू दास की कलाकृति ‘मेरा गांव’ या फिर राजीव रंजन की कृति ‘दादी मां का अचार’ आपको एक अलग दुनिया में ले जाने के लिए विवश करती है। एक्रलिक रंगों के जरिये उनकी कलाकृति में काली और गहरी नीली पृष्ठभूमि पर गांव के बहुतेरे रंग दिख रहे थे तो राजीव रंजन ने ‘दादी मां का अचार’ में तीन तलों की मेज पर बड़े-बड़े पारदर्शी मर्तबान में अलग-अलग वस्तुए भरी हुई थीं जो वर्तमान उपभोक्तावादी सभ्यता पर कड़ा चोट कर रही थी। संजय कुमार का चित्र ‘मॉल’ से लेकर रवींद्र दास का चित्र ‘लव आज कल’ मैथिली और भोजपुरी की मिट्टी की उस सोंधी सुगंध से ओतप्रोत था, जो यह जानता है कि उस बाढ़ के पानी और छोड़ गयी मिट्टी में इतनी ताकत है जो अंतरराष्ट्रीय कलाओं को टक्कर देने का माद्दा रखती है। फोटोग्राफर शैलेंद्र कुमार का फोटोग्राफ हो या सुभाष पॉल का, रंग तो वाकई रंगीन करने वाले हैं।
‘रंगपूर्वी’ की इस प्रदर्शनी ने कला की उस दुनिया को सामने लाने का काम किया है, जो कला मानचित्र से अलग-थलग रहने के लिए विवश रही है। ऐसे ही माहौल में दिल्ली सरकार की मैथिली-भोजपुरी अकादमी द्वारा ‘रंगपूर्वी’ का आयोजन कराया जाना एक अहम बात है। हालांकि दिल्ली सरकार का आगे आना तीनों राज्यों के सरकार के चेहरे पर करारा तमाचा है क्योंकि यहां कला के विकास के नाम पर कुछ भी नहीं किया जा रहा जिससे यहां के कलाकारों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान मिल सके।
(१६ अप्रैल, २०१० को मूलतः मोहल्ला लाइव में प्रकाशित)
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