M.F.Husain

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Friday, March 23, 2012

एंकर नहीं शेखर

शेखर सुमन दोबारा छोटे परदे पर आ रहे हैं। 'मूवर्स एंड शेकर्स" में वे आज के मुद्दों पर कटाक्ष करते हैं, वहीं अपने क्षेत्र के कुछ बेहतर करने वालों से रू-ब-रू भी होते हैं। दोबारा शुरू हुए इस शो में वे अन्ना हजारे को लाना चाहते थे लेकिन यह हो न सका. पहले शो में गोविंदा का आना हुआ और इस शो  के शुरू होने से पहले विनीत उत्पल  को बताया

मूवर्स एंड शेकर्स

जिस तरह मेरी जिंदगी में 'उत्सव" मील का पत्थर है, उसी तरह रिपोर्टर, देख भाई देख, पोल खोल है तो मूवर्स एंड शेकर्स भी है। यह दूसरा चांस है जब लोग मेरे साथ होंगे। चूंकि दोबारा हमारी परंपरा में है, इसलिए 11 साल बाद मैं फिर दर्शकों के सामने हूं दोबारा। इस बार थोड़ा नया कांसेप्ट होगा। वह शो 1997 से लेकर 2001 तक चला था। 2012 में फिर से दोबारा शुरू हो रहा है। इस बार सेट नया है, सेलिब्रोटी नये हैं।
ग्यारह साल बाद
एक्टर गलतियां करता है, उससे सीखता है। समय के साथ लोगों की सोच भी बदलती है, फिलॉस्फी बदलती है। इस शो में वास्तविकता है, ताजगी है, विविधता है और 11 साल बाद पहले के मुकाबले अधिक परिपक्व शेखर से आपकी मुलाकात होगी। कंट्रोवर्सी तो होती रहती है लेकिन कई बार काफी दिलचस्प और गंभीर बातें भी सामने आती हैं। लोग अभी तक यह नहीं सीख पाए हैं कि खुद पर कैसे हंसा जाए।
'हम सभी भारतीयों का डीएनए एक जैसा है। सोच भी लगभग एक-सी ही होती है। कुछ आप जीतते हैं तो कुछ आप हारते भी हैं'
लेट नाइट शो
इस शो के लेट नाइट होने का कारण यह है कि हमारे देश में अधिकतर लोग नौकरी-पेशे वाले हैं और वह जब थक-हार कर घर आते हैं तो या तो वे सोना चाहते हैं या फिर टीवी पर हल्के-फुल्के मनोरंजन वाले शो देखना पसंद करते हैं। उनको ध्यान में रखकर शो को लेट नाइट रखा गया है।
व्यंग्य या कॉमेडी
हास्य एक पक्ष है। अक्षय कुमार फिल्म में कॉमेडी करते हैं, शाहरुख खान भी कॉमेडी करते हैं तो वह कॉमेडियन नहीं हो जाते बल्कि वह एक्टर होते हैं। आर.के. लक्ष्मण के कार्टून से प्रभावित हूं। मैंने उसी कार्टून के आम आदमी को जबान दी है। मेरा मानना है कि मूवर्स एंड शेकर्स कभी खत्म हुआ ही नहीं था क्योंकि हम लोग हर पल कटाक्ष करते हैं। मैं एंकर नहीं हूं, अभिनेता हूं और सिर्फ अभिनय करता हूं।
पहचान
मूवर्स एंड शेकर्स में मेरी पहचान बनी। सीजन वन में आठ सौ शो चला था और कोई भी शो इसके नजदीक नहीं आ सका। अंग्रेजी में एक कहावत है, जैक ऑफ आल ट्रेड, मास्टर ऑफ नन।इसलिए मैं सब कुछ करने की कोशिश करता हूं। लेकिन सब कुछ को कॉमेडी में नहीं बांधा जा सकता है। व्यंग्य की मार दी जा सकती है। मैं जनता की आवाज बनना चाहता हूं।
जिंदगीजिंदगी में एक चौराहा आता है, एक दौर आता है जब आप सोचते हैं कि कहां जाना है। जो सूरत मिलनी चाहिये, नहीं मिल रही है। सफलता के लिए विश्लेषण जरूरी है। क्रिटिसिज्म जो करता है, वह आपका दोस्त होता है, सही राह दिखाता है। जिंदगी में कंपीटिशन हमेशा रहा है, चैनल एक था और सभी उसमें आना चाहते थे।
अफसोस
काश, इतनी सारी जिम्मेदारियां नहीं होतीं। इतने पब्लिक डोमैन में होने के कारण काफी मिस करता हूं। थियेटर के लोगों की तरह जीना चाहता हूं। दिल्ली के श्रीराम सेंटर से ट्रेनिंग ली थी। आजाद वातावरण में रहना चाहता हूं लेकिन काम के प्रेशर के कारण कुछ कर नहीं पाता हूं।  मनोहर सिंह, पंकज कपूर, राजेश, विवेक, उत्तरा ओबर काफी याद आते हैं।
गेस्ट
हम सभी भारतीयों का डीएनए एक जैसा है। सोच भी लगभग एक-सी ही होती है। कुछ आप जीतते हैं तो कुछ आप हारते भी हैं। जो न्यूज में होंगे, हम उन्हें बतौर गेस्ट बुलाएंगे। कहने का अपना ढंग होता है। कोई अपशब्द या गाली का प्रयोग करता है तो कोई उसी बात को सभ्य भाषा में कह देता है। वक्त से आगे कभी भी ऑडियंस नहीं देखता।

Friday, March 16, 2012

बिहार कला पुरस्कार से सम्मानित होंगे 21 कलाकार


बिहार सरकार ने कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाले 21 वरीय और युवा कलाकारों को बिहार कला पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया है। बिहार शताब्दी दिवस समारोह के मौके पर गांधी मैदान में 22 मार्च को यह सम्मान दिया जाएगा।
इसमें चाक्षुष कला (विजुअल आर्ट) के आठ और प्रदर्श कला (परफार्मिंग आर्ट) के 13 कलाकार शामिल हैं। पेंटिंग, लोकगायन, शास्त्रीय गायन व कला लेखन के लिए 11 वरिष्ठ और 10 युवा कलाकारों को स्मृति चिह्न के साथ 35 हजार रुपये की राशि व युवा कलाकारों को 10 हजार रुपये की राशि दी जाएगी।
चाक्षुष कला:
राधामोहन पुरस्कार (समकालीन कला): वीरेश्वर भट्टाचार्य व राजेश राम
कुमुद शर्मा पुरस्कार (महिला कलाकार): शांभवी व अनिता कुमारी
सीता देवी पुरस्कार (लोककला): शिबन पासवान व राजकुमार लाल
दिनकर पुरस्कार (कला लेखन): अवधेश अमन व भुवनेश्वर भास्कर
प्रदर्श कला
पं. राम चतुर मल्लिक पुरस्कार (शास्त्रीय गायन): इंद्र किशोर मिश्रा व शमित मल्लिक
भिखारी ठाकुर पुरस्कार (रंगकर्म): गोपाल प्रसाद सिन्हा व प्रवीण गुंजन
विंध्यवासिनी देवी पुरस्कार (लोकगायन): बृजबाला देवी, अनिल सदा व रंजना झा
रामेश्वर सिंह कश्यप पुरस्कार (कला लेखन): अविनाथ चंद्र झा व मृत्युंजय प्रभाकर
बिस्मिल्लाह खां पुरस्कार (वाद्यवादन): रौशन अली व उमा शंकर
अम्बपाली पुरस्कार (नृत्य): रंजना सरकार व अपूर्वा सृष्टि

Thursday, March 15, 2012

फूल के फूल हैं बनफूल

बंगाल के बहुचचित लेखकों में बनफूल यानि बलाईचंद मुखोपाध्याय शामिल हैं। मंडी हाउस स्थित वाणी पकाशन की दुकान में किताबें टटोलते हुए उस दिन उनका तैतीसवां उपन्यास दो मुसाफिर पर नजर टिक गई। इस उपन्यास के घटनाकम में एक अलग स्थिति और माहौल घटित होता है। इस उपन्यास में अनोखापन तथा रोचकता भी है।
बरसात की रात में नदी के घाट पर दो मुसाफिरों की मुलाकात होती हैं। उनमें से एक नौकरी की सिफारिश के लिए निकला हुआ युवक है तो दूसरा रहस्यमय सन्यासी है। पानी से बचने तथा रात बिताने में बातों बात में उनके जीवन के विभिन्न अनुभवों के सीन उभरते हैं। उपन्यास के जरिए बेहतरीन संदेश देने का काम किया गया है। उपन्यास से एक बात उभरती है कि इस दुनिया में सभी मुसाफिर हैं। बिना एक दूसरे की मदद से मंजिल तक पहुंचना आसान नहीं होता है। बनफूल ने मानवता की बातें भी सामने रखी हैं।
दो मुसाफिर को पढ़ते वक्त भागलपुर की यादें ताजा हो जाती हैं। इसी शहर तथा इसके आसपास के इलाकों में बनफूल अपने जीवन का बेहतरीन समय बिताया था। भागलपुर रेलवे स्टेशन के घंटाघर की ऒर जाने वाली सड़क पटल बाबू रोड कहलाती है। आंदोलन के दौरान पटल बाबू ने फिरंगियों के विरूद्ध लड़ाई लड़ी थी। भारत के पहले राष्टपति राजेंद बाबू के काफी नजदीकी थे। राजेंद बाबू ने अपनी आत्मकथा में उनके पटल बाबू के बारे में काफी कुछ लिखा है।
इन्हीं पटल बाबू के मकान में कभी बनफूल का क्लिनिक हुआ करता था। आज भी यह मकान अपने अतीत को याद करते हुए सीना ताने खड़ा है। सफेद रंग के पुते इस मकान में फिलहाल सिंडिकेट बैंक चल रहा है जो रेलवे स्टेशन से घंटाघर जाते हुए अजंता सिनेमा हाल से थोड़ा पहले उसके सामने है। मुंदीचक मोहल्ले से शाह माकेट जाने के रास्ते जहां पटल बाबू रोड मिलता है उसी कोने में यह मकान है।

पटल बाबू के जीवन पर कभी कुछ लिखने की तमन्ना पालने वाला इन पंक्तियों के लेखक को जानकारी इकट्ठी करने के दौरान बनफूल के बारे में जानकारी मिली थी। वहां रहने वाले पटल बाबू के संबंधी लेखक को उस कमरे में भी लग गए थे जहां बनफूल मरीजों को देखा करते थे। मकान के दो हिस्सों में बने बरामदे पर बैठ कर वे कहानी और उपन्यास की रचनाएं किया करते थे।
उपन्यास दो मुसाफिर के पिछले पन्ने पर बनफूल की जीवनी को लेकर जानकारी दी गई है।
जन्म- १९ जुलाई १८९९ बिहार के पूणियां जिले के मनिहारी नामक गांव में (बतातें चलें कि अब मनिहारी कटिहार जिले में है)
कोलकाता मेडिकल कालेज से डाक्टरी की पढ़ाई करने के बाद बनफूल सरकारी आदेश पर आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए पटना गए। पढ़ाई पूरी करने के बाद वे पटना मेडिकल कालेज और उसके बाद अजीमगंज अस्पताल में कुछ दिनों तक काम किया। बचपन से ही उन्होंने कविता लिखना शुरू कर दिया था। उनका मन जंगलों में इतना लगता था कि उन्होंने अपना नाम बनफूल ही रखा लिया। बाद में वे कहानी तथा उपन्यास भी लिखने लगे। मनोनुकूल परिस्थिति न मिलने के कारण उन्होंने नौकरी छोड़कर मनिहारी गांव के पास ही दि सेरोक्लिनिक की स्थापना की। १९६८ में उनहत्तर साल की अवस्था में भागलपुर को हमेशा के लिए छोड़कर कोलकाता में बस गए। १९७९ में उनका निधन हो गया। चचित कृतियां हैं-
जंगम
रात्रि
अग्निश्वर
भुवनसोम
हाटे बाजारे
स्थावर
ल‌‌क्छमी का आगमन
सहित ५६ उपन्यास तथा लघुकथा के दो संगह तथा कविता आदि विविध विषयों पर अन्यान्य कृतियां।

Tuesday, March 13, 2012

विषय-तकनीक समकालीन तो कला समकालीन: रवींद्र कुमार दास


आधुनिक भारतीय कला का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। समाज की विचारधारा एवं मनुष्य की भावनाओं को चित्रकार चित्र के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं। बिहार के वरिष्ठ कलाकार हैं, रवींद्र कुमार दास। वे आधुनिक शैली के चित्रकार हैं। इनकी कलाकृतियों पर मिथिला की लोक संस्कृति की सहजता एवं आधुनिकता की चकाचौंध, दोनों का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। कई एकल एवं सामूहिक प्रदर्शनियों में इनकी कलाकृतियां प्रदर्शित हो चुकी हैं। उनसे युवा कवि एवं पत्रकार विनीत उत्पल की बातचीत- 

शुरुआती दौर का सफर कैसा रहा?

मिथिलांचल में मेरा जन्म हुआ। स्कूली शिक्षा के बाद मैं पटना आ गया। पिताजी के काफी मान-मनव्वल के बाद पटना आर्ट कॉलेज में दाखिला लिया। अध्ययन के दौरान ही मैंने फोटोग्राफी करनी शुरू कर दी, जिसकी आमदनी से मैं पेंटिग किया करता था। शुरुआत में जलरंग में चित्रण किया, जिसके विषय प्रेम एवं प्रकृति थे। फिर, कुछ देवी-देवताओं के चित्र भी बनाये। कृष्ण को एक सामान्य मनुष्य के तौर पर चित्रित किया। भैंस के साथ एक चरवाहा बांसुरी बजा रहा था। उसे देखकर मुझे लगा कि यही है कृष्ण का आधुनिक रूप। बिहार में हुए नरसंहारों पर कविता प्रदर्शनी का आयोजन पटना के मौर्यलोक के नुक्कड़ पर आयोजित किया था। इसमें मेरे साथ बिहार के चर्चित कलाकार सुबोध गुप्ता, नरेंद्र पाल सिंह आदि कई कलाकार भी थे।

रविन्द्र दास की कृति 

क्या वहां सांस्कृतिक माहौल था?

हां, उन दिनों था। कला के सभी विधा के लोगों में सांस्कृतिक संप्रेषण था। इप्टा, जनसंस्कृति मंच, कला संगम जैसी संस्थाएं कवियों, कलाकारों एवं नाटककारों को एक सूत्र में बांधने का काम कर रही थीं। उन्हीं दिनों नूर फातिमा, तनवीर अख्तर, अपूर्वानंद, संजय उपाध्याय प्रभृत संस्कृतिकर्मियों से मेरा परिचय हुआ। 'जनमत" के संपादक रामजी राय के साथ भी कला पर विचार-विमर्श हुआ करता था। पटना में कोई कला दीर्घा तो थी नहीं, बावजूद इसके हमलोगों ने एक नुक्कड़ को नंदलाल बसु कला दीर्घा नाम से चर्चित कर दिया था।

दिल्ली में सफर कैसा रहा?

1990 के आसपास जो लोग राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने के लिए पटना से दिल्ली या मुंबई आए, वही लोग कहीं-न-कहीं मिल जाते थे। यहां बड़ौदा, भारत भवन एवं शांति निकेतन के कलाकार अलग-अलग समूहों में बंटे थे। हम लोगों ने सबसे संवाद बनाया। चूंकि बिहार में राज्य ललित कला अकादमी नहीं थी, कोई रजा जैसा स्थापित कलाकार या अशोक वाजपेयी जैसा कला मर्मज्ञ अधिकारी भी नहीं था, इसलिए बिहार के कलाकारों को अपनी जगह बनाने में समय लगा। बिहार के कलाकारों ने मिलकर समूह प्रदर्शनी आयोजित करना शुरू किया।

आप आधुनिक कलाकार हैं लेकिन मिथिला चित्रकला से आपका जुड़ाव कैसे है?

मेरा जन्म मिथिला में हुआ तथा मेरी पत्नी मिथिला शैली के चित्रों से प्रेरणा लेकर चित्र बनाती है। मैंने उनसे जुड़कर कई राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित चित्रकारों से साक्षात्कार लिया, उनके चित्रों को जाना तो मिथिला चित्र मुझे भी अच्छे लगने लगे। इन चित्रों की रेखाएं पिकासो के रेखांकन से मुकाबला करती हैं। मैंने मिथिला चित्रों के मूल विषय प्रेम से प्रेरणा ली हैं एवं इनके रेखांकन की सहजता भी अपने चित्रों में उकेरने की कोशिश की है।

बिहार के कलाकारों की राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्या स्थिति है?

बिहार हीं नहीं, पूरे उत्तर भारत खासकर हिन्दी प्रदेशों के कलाकारों में पटना एक नया कला केंद्र बन कर उभर रहा है। खासकर सुबोध गुप्ता के स्टार कलाकार बन जाने के बाद लोगों में बिहार के कलाकारों के बारे में धारणा बदली है। राजेश राम, सांभवी सिंह आदि ऐसे कलाकार हैं, जिनकी कला को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सराहना मिल चुकी है। जबकि आज भी कला समीक्षकों, कला दीर्घाओं आैर संपन्न वर्ग में हिन्दी क्षेत्र के कलाकारों के प्रति उपेक्षा है। कला में बाजार ही सब कुछ तय कर रहा है। मैंने मिथिला के लोगों में भी मिथिला चित्र खरीदने या अपनी मां-बहनों द्वारा बनाई कलाकृतियों को सहेजने की प्रवृति नहीं देखी। बिहार में आधुनिक कला का बाजार नहीं है। राष्ट्रीय स्तर पर अधिकतर दीर्घाएं सजावटी काम को ही खरीद रही हैं जबकि आज वीडियो आर्ट, इंस्टालेशन एवं परफार्मिंग आर्ट का ट्रेंड है। सौंदर्य से ज्यादा विचारों की प्रमुखता है।

आपने अपने चित्रों में प्रेम मूल विषय रखा, आपने प्रेम को कैसे चित्रित किया?

जब मैंने एक्रेलिक रंगों की बुद्ध सीरिज के बाद जलरंगों में पुन: काम शुरू किया तो प्रेम विषय को केंद्र में रखकर काम किया। प्रेम के सभी प्रतीकों को अपने चित्रों में जगह दी। दो हंसों के जोड़े, प्यार का मंदिर ताजमहल, प्यार में डूबे दिलों का संगीत में डूब जाना, ह्मदय की धड़कन, दिमाग में आते ख्याल, प्रेम दृश्यों से भरे खजुराहो के मूर्तिशिल्प, फिल्मी नायक-नायिका, शाहजहां-मुमताज जैसी कई आकृतियां हैं, जो मेरे चित्रों में प्रेम को दर्शाती हैं। भारत में अधिकतर लोग शादी के बाद प्रेम करते हैं आैर अपनी तुलना किसी फिल्मी नायक-नायिकाओं से करते हैं। राजकपूर-नर्गिस का प्रेम दृश्य इसका प्रतीक है। मोर के सौंदर्य को प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। कहीं-कहीं मोर पुरुष चरित्र को दर्शाता है। ग्रामोफोन पर बजता संगीत एवं उसका आनंद लेता मोर, प्यार में डूबे युवक-युवती के संगीत प्रेम भी मेरे चित्रों में चित्रित हैं। कहते हैं कि आशिकी एवं मौशिकी दोनों के बीच अनन्य संबंध है एवं शरीर व मन पर प्यार का प्रभाव काफी होता है। इसलिए मैंने इन प्रेमों को भी कई तरह से दर्शाने की कोशिश की है। मैंने कुछ चित्रों में पुराने प्रेमी एवं आधुनिक प्रेमी, दोनों को एक साथ भी चित्रित किया है।

अपनी कलाकृतियों की चित्रभाषा के बारे में कुछ कहेंगे?

कला तभी समकालीन है जब उसमें विषय एवं तकनीक दोनों समकालीन हों। मैंने अपने चित्रों में आकृतियों को एक-दूसरे के ऊपर सुपर इम्पोज किया है। जलरंग के मूल चरित्र सहजता एवं उन्मुकतता का इस्तेमाल मैंने किया है, जिसमें बारीक रेखांकनों के साथ-साथ तीन आयामी प्रभाव भी हैं। पारदर्शी रंगों के कारण सब एक-दूसरे से जुड़ते हैं ताकि स्पेस में गहराई का अनुभव हो। पहाड़ी लघुचित्र कला, मिथिला चित्रों के रेखांकन, फिल्मों के पोस्टर आदि का कोलाज मेरे चित्रों में दिखता है। मैंने इन चित्रों में ज्यादा चटख रंगों का प्रयोग न कर, हल्के रंगों का प्रयोग किया है ताकि चित्रों में गंभीरता बनी रहे। मैंने काफी प्रयोग किया है एवं यह भी सच है कि हर कलाकार प्रयोग करना चाहता है।


रविन्द्र दास की कृति 
मिथिला चित्रों में एवं आधुनिक कला में क्या अंतर पाते हैं?

अगर मौलिक काम है तो दोनों अपनी-अपनी जगह श्रेष्ठ है। मगर, कुछ चित्रकारों के कामों को छोड़ दें तो अधिकतर मिथिला चित्र नकल है एवं सजावटी हैं। आधुनिक कला में तब तक आप कलाकार माने नहीं जाते जब कि आपकी कुछ निजी शैली न हो। कई आधुनिक कलाकार का काम हो सकता है कि आपको संुदर एवं सजावटी न लगे पर गंभीर रचनाओं का अपना महत्व है एवं उसके पारखी खरीददार अब बढ़ रहे हैं। जैसे व्यावसायिकता के दबाव में बनी फिल्म कालजयी नहीं होती, जैसे सिनेमा के दर्शक बदल रहे हैं एवं अच्छी फिल्में बन रही हैं, वैसे ही कला में भी अब सजावटी चित्रों का दौर खत्म हो रहा है। अब शोधपरक कलाकृतियां चर्चित हो रही हैं। पिछले दिनों आयोजित भारत कला मेला-2012 को देखकर ऐसा ही लगा। समकालीन एवं मिथिला कला, दोनों को उसमें जगह दी गई थी।

राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय कलाकारों में किनका काम आपको अच्छा लगता है?

इतिहास की बात करें तो सबसे पहले मैं पिकासो का नाम लेना चाहूंगा। उसके बाद पॉल गोग्यों भी मेरे पसंदीदा कलाकारों में हैं। आज के कलाकारों में यू मिनजुन, डैमियन हस्र्ट, अतुल दोदिया एवं मिथु सेन का काम पसंद है। बिहार के कलाकारों में गोदावरी दत्त, अमरेश एवं राजेश राम की कलाकृतियां गहरे तौर पर प्रभावित करती हैं।

Tuesday, March 6, 2012

दुबई कला मेले में दिखेगी हुसैन की पेंटिंग

कला दुबई मेले में इस बार एम.एफ. हुसैन की कलाकृति प्रदर्शित होगी। 21 मार्च से शुरू होने वाले मध्य-पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और दक्षिण एशिया (मनेसा) क्षेत्र के इस अंतरराष्ट्रीय कला परिपेक्ष में होने वाले इस सबसे बड़े कला मेले में चार भारतीय कला दीर्घाओं और भारतीय कला की विशेषज्ञता वाली दो अंतराष्ट्रीय कला दीर्घाओं का प्रदर्शन होगा। इस आयोजन का यह छठा साल है।
21  मार्च से शुरू हो रही है प्रदर्शनी
हुसैन की पेंटिंग ग्रासवेनोर वडेहरा गैलरी में प्रदर्शित की जाएगी। इस मौके पर 1967 में हुसैन द्वारा बनाई गई फिल्म 'थ्रू द आइज ऑफ ए पेंटर" फिल्म भी दिखाई जाएगी। 18 मिनट की इस फिल्म की शूटिंग राजस्थान में हुई थी और बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में गोल्डन बीयर अवार्ड जीता था।
न्यूयार्क और लंदन की आयकॉल गैलरी में भी भारतीय कला को प्रदर्शित किया जाएगा। मुंबई की चेमाउल्ड प्रेसकॉट रोड, कोलकाता का एक्सपेरिमेंटर, मुंबई का गैलरी मिरचंदानी और स्टेनरूएक के अलावा दिल्ली की सेवन आर्ट लिमिटेड गैलरी में इस मेले में शामिल हो रही है।

Friday, March 2, 2012

परंपराओं की छांव में कला की आहट


Sanju das ka mera gawn
Santosh Verma PAINTING
raviranjan ART WORK
Rawindra das artwork small
रचनात्मकता और कलात्मकता किसी परिचय का मोहताज नहीं होती। हां, यह जरूर है कि एक प्लेटफार्म मिलने से उन्हें एक पहचान मिलती है। सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर गंगा-जमुनी सभ्यता में जितनी संस्कृति पनपी और विकास हुआ, उसे नकारा नहीं जा सकता है लेकिन सरकार या सरकारी छांव में जो पले-बढ़े और जो भांड-चारण हुए, उनकी योग्यता कहीं ज्यादा आंकी गयी। सृजन और इससे जुड़ी कला के बारे में यह बात सौ फीसद सही है। पिछले दिनों ललित कला अकादमी की कलावीथियों में पूर्वी उत्तरप्रदेश, बिहार और झारखंड के 43 कलाकारों के कामों से रूबरू हो कर दिल्ली के कलाकार और समीक्षक चौंक उठे।
दिल्ली सरकार की मैथिली-भोजपुरी अकादमी के सौजन्य से प्रदर्शित यह प्रदर्शनी कई मायनों में अलग थी क्योंकि इसमें पारंपरिक मैथिली और भोजपुरी कलाकारों ने हिस्सा लिया था। एक ओर जहां गोदावरी दत्त जैसी प्रतिष्ठित कलाकार की कलाकृति प्रदर्शित की गयी थी, वहीं रवींद्र दास, उमेश कुमार, दिनेश कुमार राय, राजेश राय, प्रेरणा झा, नरेंद्रपाल सिंह, संजीव सिन्हा, उदय पंडित, त्रिभुवन देव, संजू दास, राजीव रंजन और शरद कुमार जैसे कलाकारों के भी कामों को राष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान के लिए प्लेटफार्म मिला। हालांकि यह और बात है कि इस मौके पर प्रदर्शित अधिकतर कलाकारों की कलाकृतियां न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर सराही जा चुकी हैं।
Godavery dutt paintingबिहार के सुबोध गुप्ता अंतरराष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुके हैं वहीं इस प्रदर्शनी में कई ऐसे कलाकारों की भी मौजूदगी रही जिनकी तरफ कला-संग्राहकों का ध्यान जाना गया होगा। युवा कलाकार और पेंटर उमेश कुमार की सक्रियता और पहल के कारण ही इस भौगोलिक इलाके के कलाकार ‘रंगपूर्वीं’ के बहाने एक व्यापक मंच के जरिये सामने आये।
राजेश राय का एक मूर्तिशिल्प अपनी सरलता और रचनात्मकता लिए हुए है क्योंकि अपनी कलाकृति के जरिये उन्होंने एक संदेश देने का काम किया है कि कैसे संगठित होने से बकरियां भी शेर बन जाती हैं। अमरेश कुमार की शिल्पकृति के रूप में एक पुरानी अलमारी की दीवार को लगाया गया था और इसका नाम था ‘मैं’। एक अद्भुत नमूना था। उमेश कुमार ने पेंटिंग ‘लोनलीनेस’ के जरिये पालने में एक शिशु को दिखाया। युवा कलाकार शरद कुमार ने एक इंस्टॉलेशन को प्रदर्शित किया था ,जो इंस्टॉलेमन जैसी उत्तर आधुनिक विधा को बखूबी प्रदर्शित करने का काम है। 1930 में जन्मीं गोदावरी दत्त की कृति का नाम ‘अनंतवासुकी’ था जो काफी जटिल संरचना प्रदर्शित करती है। आठ बड़े-बड़े सर्प, एक चाकौर-सी आकृति, नीचे के आधे हिस्से में उनकी आठ पूंछ और उनकी बड़ी-बड़ी आंखें कला के एक नये आयामों को छूती दिखाई दे रही थीं।
इस मौके पर उदय पंडित की कला को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है। फाइबर ग्लास से बना सफेद पेड़ और सूखा ठूंठ, और फिर छोटी-बड़ी सफेद पोटलियों से लदी कृति एक अलग ही मायने बिखेर रही थी। संजू दास की कलाकृति ‘मेरा गांव’ या फिर राजीव रंजन की कृति ‘दादी मां का अचार’ आपको एक अलग दुनिया में ले जाने के लिए विवश करती है। एक्रलिक रंगों के जरिये उनकी कलाकृति में काली और गहरी नीली पृष्ठभूमि पर गांव के बहुतेरे रंग दिख रहे थे तो राजीव रंजन ने ‘दादी मां का अचार’ में तीन तलों की मेज पर बड़े-बड़े पारदर्शी मर्तबान में अलग-अलग वस्तुए भरी हुई थीं जो वर्तमान उपभोक्तावादी सभ्यता पर कड़ा चोट कर रही थी। संजय कुमार का चित्र ‘मॉल’ से लेकर रवींद्र दास का चित्र ‘लव आज कल’ मैथिली और भोजपुरी की मिट्टी की उस सोंधी सुगंध से ओतप्रोत था, जो यह जानता है कि उस बाढ़ के पानी और छोड़ गयी मिट्टी में इतनी ताकत है जो अंतरराष्ट्रीय कलाओं को टक्कर देने का माद्दा रखती है। फोटोग्राफर शैलेंद्र कुमार का फोटोग्राफ हो या सुभाष पॉल का, रंग तो वाकई रंगीन करने वाले हैं।
‘रंगपूर्वी’ की इस प्रदर्शनी ने कला की उस दुनिया को सामने लाने का काम किया है, जो कला मानचित्र से अलग-थलग रहने के लिए विवश रही है। ऐसे ही माहौल में दिल्ली सरकार की मैथिली-भोजपुरी अकादमी द्वारा ‘रंगपूर्वी’ का आयोजन कराया जाना एक अहम बात है। हालांकि दिल्ली सरकार का आगे आना तीनों राज्यों के सरकार के चेहरे पर करारा तमाचा है क्योंकि यहां कला के विकास के नाम पर कुछ भी नहीं किया जा रहा जिससे यहां के कलाकारों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान मिल सके।
(१६ अप्रैल, २०१० को मूलतः मोहल्ला लाइव में प्रकाशित)