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Wednesday, October 9, 2013

हिन्दी में मौलिक नाटकों का अभाव : रामजी बाली

आज के दौर में हालांकि हिन्दी रंगमंच की स्थिति काफी अच्छी है लेकिन कुछ समस्याएं भी हैं। दर्शक काफी संख्या में नाटक देखने आ रहे हैं लेकिन नाटकों में काम करने वाले स्तरीय युवाओं की कमी खलती है। नाटकों में सक्रिय युवा प्रोजेक्ट ऑरियेंटेड यानी प्रायोजित काम कर रहे हैं। आैर जब इस तरह का रंगमंच होता है तो स्पेस छूटता है फर्जी रंगकर्मियों के लिए। क्योंकि जब कोई संस्थान कोई उत्सव आयोजित करता है तो उसे कागजों पर नाम भरना होता है। ऐसे में वहां वह जुड़ते हैं जो कायदे से रंगमंच के होते ही नहीं हैं। ऐसे में सच्चे रंगकर्मी पिछड़ जाते हैं।

हिंदी में स्तरीय नाट्य लेखन के रूप में अच्छे नाटक बहुत कम लिखे जा रहे हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि नाटक लिखने वाले नाटककार नहीं हैं आैर उनका नाटक देखने वाले दर्शकों से सीधा कोई सरोकार नहीं है। ऐसे में उनके लिखे नाटकों में रंगमंचीय संभावनाएं नगण्य होती हैं आैर वे अच्छे निर्देशकों द्वारा मंचित नहीं किए जाते हैं। साहित्य सेवी जयशंकर प्रसाद से लेकर मोहन राकेश तक के नाटकों में कई दृश्य रंगमंचीय दृष्टि से व्यावहारिक नहीं हैं। ऐसे में लेखक बिरादरी को गंभीरता से सोचना होगा कि स्तरीय नाट्य लेखकों का अकाल क्यों पड़ रहा है आैर इसे कैसे दूर किया जाए। सच यह है कि यदि कोई लेखक नाटक लिखना चाहता है तो उसे नाटक मंडली से जुड़कर काम करना होगा आैर जानना होगा कि कोई नाटक किस तरह प्रस्तुति लायक बन सकता है। हालांकि इस दिशा में कुछ निर्देशकों ने खुद ही प्रयास किए हैं आैर वे सफल भी हुए हैं।
थियेटर के अस्तित्व की जहां तक बात है तो हालांकि अब वह दौर नहीं रहा जब लोग रातभर जगकर नाटक देखते थे फिर भी पिछले15 वर्षों में मैंने पाया है कि थियेटर के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है। राम गोपाल बजाज द्वारा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में भारत रंग महोत्सव शुरू करने के बाद आज देशभर में 60-70 थियेटर फेस्टिवल हो रहे हैं। विभिन्न  राज्यों के छोटे-छोटे शहरों में भी आज रंगमंच सक्रिय हो रहा है। किसी नाट्य मंडली का दूसरे शहरों में आना-जाना बहुत बड़ी चीज हुई है। ऐसे में नाटक का दायरा आैर दर्शक लगातार बढ़ रहे हैं।
निश्चित रूप से किसी भी कलाकार के लिए पुरस्कार बहुत मायने रखता है।  पुरस्कार पहचान बनाता है। जैसे मुझे बिस्मिल्लाह खां पुरस्कार मिला तो वह मेरे लिए एक तरह का टॉनिक है, प्रोत्साहन है। इससे एनर्जी मिलती है। महसूस होता है कि नाटककारों के बीच मेरा भी कोई स्थान है। मोहन राकेश के 'आषाढ़ का एक दिन" में एक वाक्य है,'प्रतिभा एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है।"
दूसरी भाषाओं के नाटकों की स्थिति का जहां तक सवाल है तो बेशक मैं हरियाणा से हूं आैर मेरी मातृभाषा पंजाबी है पर मेरी शिक्षा-दीक्षा हिन्दी में हुई है। अत: मुझे हिन्दी भाषा के नाटकों की ही अधिक जानकारी है। दूसरे भाषाओं की जानकारी तभी मिलती है जब  हल्ला होता है, चर्चा होती है। जहां तक मेरी समझ है, मुझे लगता है कि पंजाबी में काफी नया काम हो रहा है लेकिन वहां अनुवाद की समस्या है। मराठी नाटककार भी काफी सक्रिय हैं। बंगाल में नाटक का काफी कम काम देखने को मिला है लेकिन जो है पारंपरिक रूप में ही है। चिंतनीय यह है कि प्रतिष्ठित लेखकों की नाट्य लेखन से दूरी बढ़ रही है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि स्तरीय लेखकों को रंगमंडली के साथ मिलकर नाट¬ लेखन की पहल करनी चाहिए।
हिन्दी पट्टी में एनएसडी जैसे संस्थानों ने मौलिक नाट्य लेखन के प्रचार-प्रसार की जरूरत महसूस नहीं की है। यदि की होती तो इससे संबंधित कार्यशाला जरूर होती। कहा जा सकता है कि साहित्य रंगमंच से दूर जा रहा है। यह काफी अफसोसजनक है। कभी भी मौलिक नाटक की आवश्यकता नहीं समझी गई। पिछले कुछ सालों में प्रयोगधर्मिता के नाम पर जो कुछ भी हुआ है, उसमें एनएसडी की भूमिका अहम रही है।
प्रस्तुति : विनीत उत्पल

Wednesday, October 2, 2013

करगिल की कलायात्रा

जयप्रकाश त्रिपाठी
कम लोग जानते होंगे कि आम भारतवासी के मन में 'वार जोन" के नाम से पहचान बनाने वाले करगिल में बंदूक आैर बारूद की जगह कूची, कलम आैर लोकसंगीत की अनूठी त्रिवेणी भी बहती है। इस क्रम में पिछले पखवाड़े लद्््दाख के करगिल में जम्मू एंड कश्मीर कल्चरल अकादमी ने सात दिवसीय 'ऑल इंडिया पेंटिंग कैंप" का आयोजन किया। कैंप के दौरान दो दिन के सांस्कृतिक उत्सव में क्षेत्रीय लोक गीत व लोक नृत्यों का भी समा बंधा। इस मौके पर करगिल जैसे संवेदनशील इलाके में दर्शकों से खचाखच भरा ऑडिटोरियम कला आैर संस्कृति के प्रति अनुराग की मिसाल पेश कर रहा था। आधुनिक आैर सुविधासंपन्न शहरों में भी कला के प्रति ऐसी अनुरक्ति देखने को नहीं मिलती।
'ऑल इंडिया पेंटिंग कैंप" के पहले दिन शाम से ही लोकगीत आैर लोक नृत्यों का अद्भुत नजारा देखने को मिला। लगा कि गीत, संगीत आैर नृत्य की कोई भाषा नहीं होती। देश के तमाम हिस्सों से आये कलाकार स्थानीय कलाकारों का तालियों से उत्साह बढ़ा रहे थे आैर उनके सुर-संगम में पूरी तन्मयता से डूबे थे। अगले दिन मुशायरे का वह जादू बिखरा कि कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला। इन दो दिनों में वहां की संस्कृति के साथ आत्मसात होना कलाकारों के लिए बड़ा सुखद अनुभव था। कलाकरों की तूलिकाएं उसी अंदाज में रंगों के प्रवाह में बहती चलीं गर्इं। उन्हें लगा कि इतनी शांति प्रिय जगह को 'वॉर जोन" न कह कर 'शांत जोन" कहना ज्यादा युक्तिसंगत होगा।
ऑल इंडिया पेंटिंग कैंप में सभी कलाकार अपनी भावनाओं को कैनवस में उतार रहे थे। वहां देशभर से आये कलाकार एक साथ काम कर रहे थे। सबकी तकनीक, विषय आैर रंग बेशक अलग-अलग थे मगर कैनवस पर उतारी जाने वाली कृतियों में पूरा करगिल समाया था। यह पेंटिंग कैम्प इस मायने में भी खास कहा जाएगा क्योंकि यहां आयोजित होने वाला यह पहला आर्ट कैम्प था, जिसे स्कूली बच्चों आैर कलाप्रेमियों में देखने की बहुत उत्सुकता थी।
सात दिनों के इस कैंप में देश भर से शिरकत कर रहे कलाकारों में जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ कलाकार गोकुल डैम्बी जिंदादिली की मिसाल लगे। उन्होंने चटख रंगों का प्रयोग बड़े निराले अंदाज मंे किया, जिसे वहां के वातावरण में देखा जा सकता है। सीमित रंगों आैर रेखाओं के माध्यम से दो कैनवस जोड़कर शांति आैर एकता की प्रतीक कलाकृति को मूर्तरूप दिया श्रीनगर के वरिष्ठ कलाकार महबूब ने। इस कृति में क्रास की शक्ल में रखी संगीनों के ऊपर शांति का दूत सफेद कबूतर अपनी पूरी बात कह जाता है।
J.P. Tripathi
श्रीनगर के एक आैर वरिष्ठ कलाकार महाराजा भट्ट, जो दिल्ली में रहकर कला कर्म कर रहे हैं, की कृति देखना भी सुखद रहा। भट्ट को कला इतिहास आैर कलाकारों के काम की अच्छी समझ है। उन्हें कलाकारों के विचारों को सुनना भी अच्छा लगता है। ठोस रेखाआंे में चित्रण करने वाले भट्ट के ब्राश का हर स्ट्रोक सधा हुआ लगता है। उनके कैनवस में पहाडि़यों से निकलता लाल रंग का एक पांव करगिल की संघर्षरत जनता की कर्मठता दर्शाता है, जो अपने परिश्रम से विजय पाने को आतुर है। दूर से देखने पर रंग भले ही सपाट लगते हों, पर नजदीक से हर स्ट्रोक में खूबसूत लय दिखती है।
 देश-विदेश में कई कला प्रर्दशिनयां कर चुके जम्मू के सुमन गुप्ता अपनी मूर्त (रियलिज्म) कला के लिए जाने जाते हैं। इस कैंप में किए गए इनके काम ने सबको आकृष्ट किया। कारगिल की रेतीली धूूल-धूसर पहाडि़यों को सजीवता से दर्शाती इनकी कलाकृति के हर हिस्से में किया गया डिटेल काम कलाकार के धैर्य का परिचायक है। सुमन ने बेजान पहाडि़यों में राज्य के पक्षी को भी बड़ी सजीवता से चित्रित किया है।
चंडीगढ़ के जाने-माने कलाकार मदन लाल ने अपने कैनवस में पूरे करगिल की परिभाषा गढ़ डाली। उनके उजले रंग आकर्षक हैं। वह एक रंग पर दूसरे रंग की लेयर का प्रयोग चतुराई से करते हैं। उन्होंने वहां के परिधान, काश्तकारी या प्रयोग में लायी जाने वाली प्रत्येक वस्तु को बारीक रेखाओं, तिकोने व छोटे-छोटे बिंदुओं के रूप में ऐसा संजोया है कि वह अलग-अलग आकृतियों का हिस्सा बन जाते हैं। उत्तर प्रदेश के नवल किशोर की कलाकृति में दो आकृतियां कुछ कहने को आतुर दिखीं। बोलती रेखाओं आैर लयबद्ध आकृतियों के अंदर कई आकार लिए चेहरों व आकृतियांे में कलाकार ने हर संभव जान डालने का प्रयास किया है। पूरे कैनवस में टैक्स्चर का प्रयोग आकर्षक है।
जम्मू के वरिष्ठ कलाकार जंग बहादुर ने अपनी कृति में करगिल की प्राकृतिक छटा बिखेरी। उन्होंने नीले रंगों का प्रयोग ज्यादा किया। हैदराबाद की चित्रकार पद्मा ने एक मासूम स्थानीय लड़की को दर्शाया है। उसके चारों ओर करगिल की सर्पीली सड़कों पर दौड़ते वाहनों को रेखाओं में उकेरा गया है। गाढ़े रंग की उजली आकृति लोगों को आकृष्ट करती है।
श्रीनगर के तीन आैर युवा कलाकर इफ्तिखार, युसूफ आैर तारिक ने भी अपनी चित्रकारी के हुनर दिखाए। इफ्तिखार ने सादगी से सफेद व लाल रंग में उर्दू शब्द उकेरे। युसूफ ने कैनवस पर ज्यामितीय आकार में अलग-अलग रंगों से प्रकाश दर्शाया। तारिक ने परंपरागत परिधान में स्वागत के सुर बिखेरते शहनाई वादक का चित्र उकेरा। जाने-अनजाने ये चित्रकार एमएफ हुसैन से प्रेरित लगते हैं। हालांकि  रंगों का मिश्रण उन्हें इससे अलग रखता है पर रेखाआंे में इसका प्रभाव दिखता है।
जम्मू कश्मीर की दो आैर चित्रकारों में नसरीन आैर मिलन शर्मा में से नसरीन दिल्ली के निकट गाजियाबाद में रह कर काम कर रही हैं। इनकी कृति में फ्रेम के अंदर सुंदर-सी लड़की के पीछे हरे-भरे पेड़ों से सजी खूबसूरत घाटी है। फ्रेम में कैद लड़की आजादी की कामना करती दिखती है ताकि खुली वादियों में विचरण कर सके। मिलन शर्मा तकनीकी दृष्टि से सुदृढ़ हैं। इनकी कृति में पहाडि़यों की ऊंची-ऊंची चोटियों के सर्पीले घुमावदार रास्ते में एक लड़की विचरण करते हुए हवा में झूल-सी गयी है। रंग संयोजन इस तरह है कि चित्र के मोनोटोनस होते हुए भी ब्राश के हर स्ट्रोक को देखा जा सकता है।
चित्रकारों की पांत में शामिल मेरे कलाकार मन ने भी शांत, शीतल करगिल के पहाड़ों को कैनवस पर उतारा। इस चित्र को सफेद व स्याह एक्रलिक रंगों से मिलाकर सादगी का रूप दिया गया।
कोई भी कलाकार जहां जाता है, वहां की भाषा, रंग-रूप आैर प्राकृतिक सुंदरता आदि को अपने जेहन में हमेशा के लिए संजो लेता है आैर उसका प्रभाव भविष्य में कहीं न कहीं उसकी कला पर जरूर दिखता है। इस रूप में इस कैंप में शिरकत करने वाले कलाकारों ने भी करगिल की यादों को अपने रंग आैर रेखाओं में सहेज लिया है। निश्चित ही इसका प्रभाव उनके आने वाले चित्रों में देखने को मिल सकता है।
courtsy: rashtriya sahara