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  • करगिल की कलायात्रा

    कम लोग जानते होंगे कि आम भारतवासी के मन में 'वार जोन" के नाम से पहचान बनाने वाले करगिल में बंदूक आैर बारूद की जगह कूची, कलम आैर लोकसंगीत की अनूठी त्रिवेणी भी बहती है। इस क्रम में पिछले पखवाड़े लद्््दाख के करगिल में जम्मू एंड कश्मीर कल्चरल अकादमी ने सात दिवसीय 'ऑल इंडिया पेंटिंग कैंप" का आयोजन किया। कैंप के दौरान दो दिन के सांस्कृतिक उत्सव में क्षेत्रीय लोक गीत व लोक नृत्यों का भी समा बंधा।

    • भीख मांगता अभिनेता

      सुपर-हिट फिल्म मदर इंडिया का वो सीन याद करिये जिसमें गांव का ज़मींदार सुनील दत्त को मारता है. छोटी-सी भूमिका निभाने वाला शख्स आज लखनऊ की सड़कों पर भीख मांग रहा है। नाम है संतोष कुमार खरे...

      • एंकर नहीं शेखर

        शेखर सुमन दोबारा छोटे परदे पर आ रहे हैं। 'मूवर्स एंड शेकर्स" में वे आज के मुद्दों पर कटाक्ष करते हैं, वहीं अपने क्षेत्र के कुछ बेहतर करने वालों से रू-ब-रू भी होते हैं...

        • कला पुरस्कार से सम्मानित होंगे कलाकार

          बिहार सरकार ने कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाले 21 वरीय और युवा कलाकारों को बिहार कला पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया है...

          • विषय-तकनीक समकालीन तो कला समकालीन

            आधुनिक भारतीय कला का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। समाज की विचारधारा एवं मनुष्य की भावनाओं को चित्रकार चित्र के माध्यम से प्रदर्शित करते हैं। बिहार के वरिष्ठ कलाकार हैं, रवींद्र कुमार दास...

Wednesday, October 9, 2013

हिन्दी में मौलिक नाटकों का अभाव : रामजी बाली

आज के दौर में हालांकि हिन्दी रंगमंच की स्थिति काफी अच्छी है लेकिन कुछ समस्याएं भी हैं। दर्शक काफी संख्या में नाटक देखने आ रहे हैं लेकिन नाटकों में काम करने वाले स्तरीय युवाओं की कमी खलती है। नाटकों में सक्रिय युवा प्रोजेक्ट ऑरियेंटेड यानी प्रायोजित काम कर रहे हैं। आैर जब इस तरह का रंगमंच होता है तो स्पेस छूटता है फर्जी रंगकर्मियों के लिए। क्योंकि जब कोई संस्थान कोई उत्सव आयोजित करता है तो उसे कागजों पर नाम भरना होता है। ऐसे में वहां वह जुड़ते हैं जो कायदे से रंगमंच के होते ही नहीं हैं। ऐसे में सच्चे रंगकर्मी पिछड़ जाते हैं।

हिंदी में स्तरीय नाट्य लेखन के रूप में अच्छे नाटक बहुत कम लिखे जा रहे हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि नाटक लिखने वाले नाटककार नहीं हैं आैर उनका नाटक देखने वाले दर्शकों से सीधा कोई सरोकार नहीं है। ऐसे में उनके लिखे नाटकों में रंगमंचीय संभावनाएं नगण्य होती हैं आैर वे अच्छे निर्देशकों द्वारा मंचित नहीं किए जाते हैं। साहित्य सेवी जयशंकर प्रसाद से लेकर मोहन राकेश तक के नाटकों में कई दृश्य रंगमंचीय दृष्टि से व्यावहारिक नहीं हैं। ऐसे में लेखक बिरादरी को गंभीरता से सोचना होगा कि स्तरीय नाट्य लेखकों का अकाल क्यों पड़ रहा है आैर इसे कैसे दूर किया जाए। सच यह है कि यदि कोई लेखक नाटक लिखना चाहता है तो उसे नाटक मंडली से जुड़कर काम करना होगा आैर जानना होगा कि कोई नाटक किस तरह प्रस्तुति लायक बन सकता है। हालांकि इस दिशा में कुछ निर्देशकों ने खुद ही प्रयास किए हैं आैर वे सफल भी हुए हैं।
थियेटर के अस्तित्व की जहां तक बात है तो हालांकि अब वह दौर नहीं रहा जब लोग रातभर जगकर नाटक देखते थे फिर भी पिछले15 वर्षों में मैंने पाया है कि थियेटर के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है। राम गोपाल बजाज द्वारा नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में भारत रंग महोत्सव शुरू करने के बाद आज देशभर में 60-70 थियेटर फेस्टिवल हो रहे हैं। विभिन्न  राज्यों के छोटे-छोटे शहरों में भी आज रंगमंच सक्रिय हो रहा है। किसी नाट्य मंडली का दूसरे शहरों में आना-जाना बहुत बड़ी चीज हुई है। ऐसे में नाटक का दायरा आैर दर्शक लगातार बढ़ रहे हैं।
निश्चित रूप से किसी भी कलाकार के लिए पुरस्कार बहुत मायने रखता है।  पुरस्कार पहचान बनाता है। जैसे मुझे बिस्मिल्लाह खां पुरस्कार मिला तो वह मेरे लिए एक तरह का टॉनिक है, प्रोत्साहन है। इससे एनर्जी मिलती है। महसूस होता है कि नाटककारों के बीच मेरा भी कोई स्थान है। मोहन राकेश के 'आषाढ़ का एक दिन" में एक वाक्य है,'प्रतिभा एक चौथाई व्यक्तित्व का निर्माण करती है। शेष पूर्ति प्रतिष्ठा द्वारा होती है।"
दूसरी भाषाओं के नाटकों की स्थिति का जहां तक सवाल है तो बेशक मैं हरियाणा से हूं आैर मेरी मातृभाषा पंजाबी है पर मेरी शिक्षा-दीक्षा हिन्दी में हुई है। अत: मुझे हिन्दी भाषा के नाटकों की ही अधिक जानकारी है। दूसरे भाषाओं की जानकारी तभी मिलती है जब  हल्ला होता है, चर्चा होती है। जहां तक मेरी समझ है, मुझे लगता है कि पंजाबी में काफी नया काम हो रहा है लेकिन वहां अनुवाद की समस्या है। मराठी नाटककार भी काफी सक्रिय हैं। बंगाल में नाटक का काफी कम काम देखने को मिला है लेकिन जो है पारंपरिक रूप में ही है। चिंतनीय यह है कि प्रतिष्ठित लेखकों की नाट्य लेखन से दूरी बढ़ रही है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि स्तरीय लेखकों को रंगमंडली के साथ मिलकर नाट¬ लेखन की पहल करनी चाहिए।
हिन्दी पट्टी में एनएसडी जैसे संस्थानों ने मौलिक नाट्य लेखन के प्रचार-प्रसार की जरूरत महसूस नहीं की है। यदि की होती तो इससे संबंधित कार्यशाला जरूर होती। कहा जा सकता है कि साहित्य रंगमंच से दूर जा रहा है। यह काफी अफसोसजनक है। कभी भी मौलिक नाटक की आवश्यकता नहीं समझी गई। पिछले कुछ सालों में प्रयोगधर्मिता के नाम पर जो कुछ भी हुआ है, उसमें एनएसडी की भूमिका अहम रही है।
प्रस्तुति : विनीत उत्पल

Wednesday, October 2, 2013

करगिल की कलायात्रा

जयप्रकाश त्रिपाठी
कम लोग जानते होंगे कि आम भारतवासी के मन में 'वार जोन" के नाम से पहचान बनाने वाले करगिल में बंदूक आैर बारूद की जगह कूची, कलम आैर लोकसंगीत की अनूठी त्रिवेणी भी बहती है। इस क्रम में पिछले पखवाड़े लद्््दाख के करगिल में जम्मू एंड कश्मीर कल्चरल अकादमी ने सात दिवसीय 'ऑल इंडिया पेंटिंग कैंप" का आयोजन किया। कैंप के दौरान दो दिन के सांस्कृतिक उत्सव में क्षेत्रीय लोक गीत व लोक नृत्यों का भी समा बंधा। इस मौके पर करगिल जैसे संवेदनशील इलाके में दर्शकों से खचाखच भरा ऑडिटोरियम कला आैर संस्कृति के प्रति अनुराग की मिसाल पेश कर रहा था। आधुनिक आैर सुविधासंपन्न शहरों में भी कला के प्रति ऐसी अनुरक्ति देखने को नहीं मिलती।
'ऑल इंडिया पेंटिंग कैंप" के पहले दिन शाम से ही लोकगीत आैर लोक नृत्यों का अद्भुत नजारा देखने को मिला। लगा कि गीत, संगीत आैर नृत्य की कोई भाषा नहीं होती। देश के तमाम हिस्सों से आये कलाकार स्थानीय कलाकारों का तालियों से उत्साह बढ़ा रहे थे आैर उनके सुर-संगम में पूरी तन्मयता से डूबे थे। अगले दिन मुशायरे का वह जादू बिखरा कि कब शाम हो गयी पता ही नहीं चला। इन दो दिनों में वहां की संस्कृति के साथ आत्मसात होना कलाकारों के लिए बड़ा सुखद अनुभव था। कलाकरों की तूलिकाएं उसी अंदाज में रंगों के प्रवाह में बहती चलीं गर्इं। उन्हें लगा कि इतनी शांति प्रिय जगह को 'वॉर जोन" न कह कर 'शांत जोन" कहना ज्यादा युक्तिसंगत होगा।
ऑल इंडिया पेंटिंग कैंप में सभी कलाकार अपनी भावनाओं को कैनवस में उतार रहे थे। वहां देशभर से आये कलाकार एक साथ काम कर रहे थे। सबकी तकनीक, विषय आैर रंग बेशक अलग-अलग थे मगर कैनवस पर उतारी जाने वाली कृतियों में पूरा करगिल समाया था। यह पेंटिंग कैम्प इस मायने में भी खास कहा जाएगा क्योंकि यहां आयोजित होने वाला यह पहला आर्ट कैम्प था, जिसे स्कूली बच्चों आैर कलाप्रेमियों में देखने की बहुत उत्सुकता थी।
सात दिनों के इस कैंप में देश भर से शिरकत कर रहे कलाकारों में जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ कलाकार गोकुल डैम्बी जिंदादिली की मिसाल लगे। उन्होंने चटख रंगों का प्रयोग बड़े निराले अंदाज मंे किया, जिसे वहां के वातावरण में देखा जा सकता है। सीमित रंगों आैर रेखाओं के माध्यम से दो कैनवस जोड़कर शांति आैर एकता की प्रतीक कलाकृति को मूर्तरूप दिया श्रीनगर के वरिष्ठ कलाकार महबूब ने। इस कृति में क्रास की शक्ल में रखी संगीनों के ऊपर शांति का दूत सफेद कबूतर अपनी पूरी बात कह जाता है।
J.P. Tripathi
श्रीनगर के एक आैर वरिष्ठ कलाकार महाराजा भट्ट, जो दिल्ली में रहकर कला कर्म कर रहे हैं, की कृति देखना भी सुखद रहा। भट्ट को कला इतिहास आैर कलाकारों के काम की अच्छी समझ है। उन्हें कलाकारों के विचारों को सुनना भी अच्छा लगता है। ठोस रेखाआंे में चित्रण करने वाले भट्ट के ब्राश का हर स्ट्रोक सधा हुआ लगता है। उनके कैनवस में पहाडि़यों से निकलता लाल रंग का एक पांव करगिल की संघर्षरत जनता की कर्मठता दर्शाता है, जो अपने परिश्रम से विजय पाने को आतुर है। दूर से देखने पर रंग भले ही सपाट लगते हों, पर नजदीक से हर स्ट्रोक में खूबसूत लय दिखती है।
 देश-विदेश में कई कला प्रर्दशिनयां कर चुके जम्मू के सुमन गुप्ता अपनी मूर्त (रियलिज्म) कला के लिए जाने जाते हैं। इस कैंप में किए गए इनके काम ने सबको आकृष्ट किया। कारगिल की रेतीली धूूल-धूसर पहाडि़यों को सजीवता से दर्शाती इनकी कलाकृति के हर हिस्से में किया गया डिटेल काम कलाकार के धैर्य का परिचायक है। सुमन ने बेजान पहाडि़यों में राज्य के पक्षी को भी बड़ी सजीवता से चित्रित किया है।
चंडीगढ़ के जाने-माने कलाकार मदन लाल ने अपने कैनवस में पूरे करगिल की परिभाषा गढ़ डाली। उनके उजले रंग आकर्षक हैं। वह एक रंग पर दूसरे रंग की लेयर का प्रयोग चतुराई से करते हैं। उन्होंने वहां के परिधान, काश्तकारी या प्रयोग में लायी जाने वाली प्रत्येक वस्तु को बारीक रेखाओं, तिकोने व छोटे-छोटे बिंदुओं के रूप में ऐसा संजोया है कि वह अलग-अलग आकृतियों का हिस्सा बन जाते हैं। उत्तर प्रदेश के नवल किशोर की कलाकृति में दो आकृतियां कुछ कहने को आतुर दिखीं। बोलती रेखाओं आैर लयबद्ध आकृतियों के अंदर कई आकार लिए चेहरों व आकृतियांे में कलाकार ने हर संभव जान डालने का प्रयास किया है। पूरे कैनवस में टैक्स्चर का प्रयोग आकर्षक है।
जम्मू के वरिष्ठ कलाकार जंग बहादुर ने अपनी कृति में करगिल की प्राकृतिक छटा बिखेरी। उन्होंने नीले रंगों का प्रयोग ज्यादा किया। हैदराबाद की चित्रकार पद्मा ने एक मासूम स्थानीय लड़की को दर्शाया है। उसके चारों ओर करगिल की सर्पीली सड़कों पर दौड़ते वाहनों को रेखाओं में उकेरा गया है। गाढ़े रंग की उजली आकृति लोगों को आकृष्ट करती है।
श्रीनगर के तीन आैर युवा कलाकर इफ्तिखार, युसूफ आैर तारिक ने भी अपनी चित्रकारी के हुनर दिखाए। इफ्तिखार ने सादगी से सफेद व लाल रंग में उर्दू शब्द उकेरे। युसूफ ने कैनवस पर ज्यामितीय आकार में अलग-अलग रंगों से प्रकाश दर्शाया। तारिक ने परंपरागत परिधान में स्वागत के सुर बिखेरते शहनाई वादक का चित्र उकेरा। जाने-अनजाने ये चित्रकार एमएफ हुसैन से प्रेरित लगते हैं। हालांकि  रंगों का मिश्रण उन्हें इससे अलग रखता है पर रेखाआंे में इसका प्रभाव दिखता है।
जम्मू कश्मीर की दो आैर चित्रकारों में नसरीन आैर मिलन शर्मा में से नसरीन दिल्ली के निकट गाजियाबाद में रह कर काम कर रही हैं। इनकी कृति में फ्रेम के अंदर सुंदर-सी लड़की के पीछे हरे-भरे पेड़ों से सजी खूबसूरत घाटी है। फ्रेम में कैद लड़की आजादी की कामना करती दिखती है ताकि खुली वादियों में विचरण कर सके। मिलन शर्मा तकनीकी दृष्टि से सुदृढ़ हैं। इनकी कृति में पहाडि़यों की ऊंची-ऊंची चोटियों के सर्पीले घुमावदार रास्ते में एक लड़की विचरण करते हुए हवा में झूल-सी गयी है। रंग संयोजन इस तरह है कि चित्र के मोनोटोनस होते हुए भी ब्राश के हर स्ट्रोक को देखा जा सकता है।
चित्रकारों की पांत में शामिल मेरे कलाकार मन ने भी शांत, शीतल करगिल के पहाड़ों को कैनवस पर उतारा। इस चित्र को सफेद व स्याह एक्रलिक रंगों से मिलाकर सादगी का रूप दिया गया।
कोई भी कलाकार जहां जाता है, वहां की भाषा, रंग-रूप आैर प्राकृतिक सुंदरता आदि को अपने जेहन में हमेशा के लिए संजो लेता है आैर उसका प्रभाव भविष्य में कहीं न कहीं उसकी कला पर जरूर दिखता है। इस रूप में इस कैंप में शिरकत करने वाले कलाकारों ने भी करगिल की यादों को अपने रंग आैर रेखाओं में सहेज लिया है। निश्चित ही इसका प्रभाव उनके आने वाले चित्रों में देखने को मिल सकता है।
courtsy: rashtriya sahara

Thursday, September 13, 2012

कला बाजार का कखग


कला और कलाकार की उत्कृष्टता की परिभाषाएं अब बदल गई हैं। कलाकार की स्टाइल और योग्यता अब बाजार तय करने लगे हैं। ये दोनों मामले अब हाशिये पर हैं क्योंकि किसकी कलाकृति कितने दामों में बिक रही है, ये मानक हो गए हैं। वै िक कला बाजार की इस अंधी दौड़ में भारतीय कलाकार भी शामिल हो गए हैं। कला बाजार की थ्योरी कहती है कि इस बाजार में जिसकी कलाकृति या यों कहें जो कलाकार जितने अधिक दामों में नीलाम होता है, वह उतना ही बड़ा कलाकार माना जाता है। बता रहे हैं विनीत उत्पल
भारतीय कलाकारों की कला पिछले कुछ दशकों से दुनिया भर के लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है। पुरानी पीढ़ियों में एमएफ हुसै न, रजा, सूजा, जगदीश स्वामीनाथन, तैयब मेहता, अनीश कपूर और मंजीत बावा का बोलबाला रहा है। नई पीढ़ियों के कलाकारों की कला प्रदर्शनियां सिर्फ भारत में ही नहीं लगती बल्कि न्यूयार्क के क्रिस्टी साउथ एशियन मॉडर्न एंड कंटेंपरी आर्ट ऑक्शन में भी शोभा बढ़ाती हैं। इनकी पेंटिंग्स और कलाकृतियां सिर्फ वहां दिखतीं ही नहीं बल्कि करोड़ों में खेलती भी हैं। अनीश कपूर को दुनिया के दस सबसे अमीर कलाकारों में शुमार किया जाता है। यह वही अनीश कपूर हैं, जिनकी कलाकृति ‘ऑर्बिट’ ने लंदन ओलंपिक में हर किसी से वाहवाही लूटी थी। भारतीय कलाकारों की दुनिया पूरी तरह से बदल चुकी है। भारतीय कला अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी पहचान बनाने लगी है। इन कलाकारों का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो अंतरराष्ट्रीय कला बाजार में जबर्दस्त धाक रखता है। दुनिया भर के नीलामीघर, आलोचक और प्राइवेट कलेक्टर्स काफी संख्या में भारतीय कलाकृतियों को खरीद रहे हैं। नए कलाकार पुराने कलाकारों के रिकार्ड को खत्म कर रहे हैं। भारतीय कलाकारों का बाजार भाव यह है कि आपको उनकी एक पेंटिंग या कलाकृति खरीदने के लिए जेब से 100 करोड़ रुपये निकालने होंगे। कई भारतीय कलाकृतियों की बिक्री इतने दामों में हो रही है, जो पूरे भारतीय कला बाजार का आधा है या काफी हद तक बराबर है। आर्ट टैक्टिक की रिपोर्ट बताती है कि अक्टूबर, 2009 के बाद आधुनिक भारतीय कला में 28 फीसद इजाफा हुआ है। 2001 से लेकर 2010 तक का दशक भारतीय कला के लिए काफी संभावनाएं लाने वाला रहा क्योंकि भारतीय कलाकृतियों का मू ल्य 10 लाख रुपये से बढ़कर 10 करोड़ रुपये पहुंचा। यदि आप इस बाजार को 1 से 10 अंकों में आंकें तो भारतीय कला को 6.9 अंक मिलेंगे। रिपोर्ट बताती है कि भारतीय कला बाजार 51 फीसद बढ़ा है। यदि इस बाजार को भारत जैसे बड़े लोकतंत्र की तुलना में देखा जाए तो यह काफी कम है क्योंकि महज दस फीसद कलाकारों को वैिक स्तर पर पहचान मिली है।
लंदन से प्रकाशित होने वाली आर्ट रिव्यू पत्रिका ने कला की दुनिया के सौ प्रभावशाली लोगों में तीन भारतीयों कलाकारों- सुबोध गुप्ता, ओसियान नीलामी घर के प्रमुख नेविल तुली और आर्ट कलेक्टर अनुपम पोद्दार को शामिल किया था। मालूम हो कि प्रभावशाली लोगों की सूची निजी आर्ट कलेक्शन, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यक्ति-विशेष के प्रभाव और बाजार में उनके कार्य के मूल्यांकन जैसे मानदंडों के आधार पर तैयार की जाती है। पिछले दिनों सु बोध गुप्ता द्वारा दिल्ली के लुटियंस जोन में करीब सौ करोड़ में बंगला खरीदे जाने की खबरें सुर्खियों में थीं और भारतीय कला के इतिहास में यह पहली बार हुआ है जब किसी कलाकार ने अपनी कला के बूते इस तरह की खरीदारी की। पिछले कुछ समय से पश्चिमी ऑक्शन हाउस और आर्ट गैलरियों का कंटेंपरेरी इंडियन आर्ट की ओर झुकाव अधिक हुआ है। इस कारण कलाकारों की कला को बाजार में मुंहमांगी कीमत मिल रही है। विकीपीडिया के मुताबिक, रजा की बनाई पेंटिंग करीब बीस से ढाई लाख अमेरिकी डॉलर में बिकी तो उन्हें अपने जमाने के कलाकारों में सबसे महंगे बिकने वाले कलाकारों में शुमार किया गया। 2010 को उनकी कलाकृति ‘सौराष्ट्र’ क्रिस्टी ऑक्शंस में बिकी और यह 34 लाख 86 हजार 965 अमेरिकी डॉलर यानी भारत के हिसाब से 16 करोड़ 51 लाख 34 हजार रुपये में बिकी। मालूम हो कि रजा पचास के दशक में फ्रांस में जाकर बस गए थे लेकिन भारत से उनका नाता लगातार बना रहा। अब वे फिर से भारत में ही बस गए हैं। उनका अधिकतर काम ऑयल या एक्रेलिक में है और रंगों का बेहतर सामंजस्य उनकी पेंटिंग में दिखता है। वे अपनी कलाकृति में भारतीय पात्रों को स्थान देते हैं। 1962 में बनायी गयी फ्रांसिस न्यूटन सूजा की अनटायटल्ड पेंटिंग का दाम 1.2 से 1.8 लाख अमेरिकी डॉलर है। वह प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के संस्थापक रहे हैं और स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद जिन कलाकारों ने पश्चिम के लोगों को अपनी कलाकृति के जरिए लुभाया है, उनमें से पहले नंबर पर हैं।
आधुनिक कला बाजार में सबसे महंगी बिकी। उस वक्त उसे 2.5 मिलियन डॉलर यानी 11.25 करोड़ रुपये में खरीदा गया था। मकबूल फिदा हुसैन ने अपने करियर की शुरुआत होर्डिग पेंटर के तौर पर की थी लेकिन आज उनकी पेंटिंग 3.5 से पांच लाख अमेरिकी डॉलर के बीच बिकती है। हालांकि उनकी कलाकृति ‘बैटल ऑफ गंगा एंड जमुना’ जहां 2008 में 6.5 करोड़ रुपये में बिकी थी, वहीं ‘महाभारत’ भी इसी साल छह करोड़ रुपये में बिकी। 2011 में उनकी पेंटिंग्स औसत रूप में बीस लाख अमेरिकी डॉलर (करीब 10 करोड़ रुपये) में बिक रही थीं।
उनकी तीन पेंटिंग लंदन के बोनहाम नीलामी में 2.32 करोड़ रुपये की रकम के साथ बिकी थी। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारतीय कला कुछ साल पहले दुनिया की नजरों में तब चढ़ी जब पेंटर तैयब मेहता की एक पेंटिंग ‘कल्कि’ न्यूयार्क के क्रिस्टी गैलरी में डेढ़ करोड़ रुपये में बिकी। ‘बुल्स’ नामक उनकी पेंटिंग 12,43,66,000 रुपये में 2011 में बिकी। अर्पिता सिंह की कलाकृति ‘विश ड्रीम’ करीब नौ करोड़ रुपये में बिकी। अमृता शेरगिल को बीसवीं सदी की महत्वपूर्ण भारतीय पेंटरों में शुमार किया जाता है। ‘विलेज सीन’ उनकी प्रख्यात कृति है जिसे उन्होंने 1912-14 में बनाया था और जिसकी बिक्री 1938 में हुई। मंजीत बावा की पेंटिंग ‘दुर्गा’ का दाम 2.0-2.5 लाख अमेरिकी डॉलर (करीब एक करोड़ रुपये) तक जा पहुंचा है। वासुदेस एस. गायतोंडे ऐसे पहले भारतीय कलाकार थे जिनकी पेंटिंग ओशियन आर्ट ऑक्शन में 1,97,698 अमेरिकी डॉलर में बिकी थी।
आधुनिक दौर में सुबोध गुप्ता स्कल्पचर बनाने वाले कलाकारों में सबसे महंगे कलाकार हैं। वे कांसा और स्टेनलेस स्टील के बर्तनों से आकषर्क कलाकृति बनाते हैं। क्रिस्टी ऑक्शन में उनकी कलाकृति 80 हजार अमेरिकी डॉलर में बिकी। गुप्ता की दो गायें जिनका अनुमानित दाम 2.8 से 3.5 लाख अमेरिकी डॉलर है, हर किसी को आकषिर्त करती हैं। इस कलाकृति में उन्होंने शहरी और ग्रामीण दोनों तरह के भारतीय समाज को उकेरा है। स्टेनलेस स्टील के बर्तन और साइकिल को जोड़कर बनाई गई कलाकृति कलाकार की मनोदशा को परिलक्षित करती है। गुप्ता की डेन्सली पैक्ड, जो 2004 में बनाई गई थी, उसका दाम 2.5-3.0 लाख अमेरिकी डॉलर है। पिछले एक दशक से उन्होंने अपनी कला का अधिकतर प्रदर्शन विदेशों में ही किया है।
अतुल डोडिया भी बेहतरीन काम कर रहे हैं और बाजार पर उनकी भी पकड़ी अच्छी-खासी है। ‘कल्कि’ नामक कलाकृति जो उन्होंने 2002 में बनाई थी, उसका अनुमानित मूल्य 1.8-2.5 लाख अमेरिकी डॉलर है। इस कलाकृति में कॉमन शॉप शेल्टर को माध्यम बनाया है। अकबर पद्मसी, और सुरेंद्र नायर जैसे कलाकार भी हैं जो बाजार के महारथी हैं।
बहरहाल, कला के बाजार में दिलचस्प तथ्य यह है कि जो कलाकृतियां अंतरराष्ट्रीय बाजार में बिक रही हैं, वे भारत के ऑक्शन से नहीं बल्कि विदेशों के ऑक्शन के जरिए बिक रही हैं। भारत की लोककला और लोक कलाकारों की कलाकृतियों का दाम कितना है, यह शोध का विषय हो सकता है। इस मामले में दुखद पहलू यह भी है कि कला की श्रेष्ठता अब उनके बिकने को लेकर है। जिस कलाकार की कला जितने दामों में बिकती है, उतनी ही इज्जत उसे कला के गलियारे में दी जाती है। कला पर बाजार हावी हो गया है। बाजारवाद के दौर में यह बात गर्द में मिल गई कि कला एक तपस्या है। यहां कला का मोल नहीं है बल्कि उस व्यक्ति का मोल है, जो अपनी कला को कितने अधिक दाम में बेच पाता है या फिर बेचने में सक्षम है।
कला बाजार की थ्योरी
अधिकतर पुरानी कलाकृतियां संग्रहालय में रखी हुई हैं। खासकर 1800 ई से पूर्व की कलाकृतियां दुनिया के तमाम संग्रहालयों में दिख जाएंगी। कम ही ऐसेसंग्रहालय हैं जो इन कलाकृतियों की बिक्री करते हैं क्योंकि माना जाता है कि बाजार में अब उनकी कोई कीमत ही नहीं है। कला लेखक चार्ली फिंच ने पिछले दिनों ऑर्ट नेट डॉट कॉम पत्रिका में लिखा था कि कला के बाजार को देखते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिस कला का दाम 1960 के दशक में 1000 अमेरिकी डॉलर था, उसका मू ल्य 1980 के दशक में 10,000 अमेरिकी डॉलर और आज उसका मूल्य 100,000 अमेरिकी डॉलर हो गया। हालांकि उन्होंने कलाकृतियों के संचय किए जाने पर सवाल भी उठाया है। उनका कहना था कि कलाकार की स्टाइल और योग्यता उनकी क्षमता को अलग करते हैं लेकिन यहां किसी कलाकार की कलाकृति करोड़ों में बिकती है तो किसी की कलाकृतियों का दाम लगाने वाला कोई नहीं होता। उनकी थ्योरी कहती है कि यह कार्य बाजार करता है क्योंकि मुट्ठी भर लोगों के पास ही पैसा है। इसलिए सरप्लस कैपिटल और नॉर्मल मार्केट में अंतर होता है। महत्वपूर्ण यह नहीं कि पिकासो की कलाकृति 100 मिलियन डॉलर में बिक रही है बल्कि मुख्य बात यह है कि 100 मिलियन डॉलर के पिकासो हो गए। इस तरह की विकृतियां आर्ट मार्केट के पारंपरिक रास्तों को प्रभावित करती हैं। किसी कलाकार की कलाकृति की भारी छूट, भारी-भरकम प्रशंसा किसी के सामूहिक कामों की अपेक्षा व्यक्तिगत मामले अधिक हावी हैं। तात्कालिक प्रशंसा भी मायने रखती है। जैसा कि स्टॉक एक्सचेंज में होता है। फायदा तब होता है कि व्यापार हो, न कि उसे रोके रखने में। किसी भी पेंटिंग के व्यक्तिगत गुणों के बनिस्पत किसी कलाकार की पेंटिंग अधिक महत्व रखती है। आर्ट फेयर में कलेक्टर्स के व्यवहार इन्हीं नए यथाथरे से प्रेरित है। सोने को लेकर कोई गलतफहमी नहीं होती क्योंकि वह वास्तव में सोना होता है लेकिन यहां कलेक्टर्स महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे परिस्थितियां भी बनाते हैं और एक प्रतिष्ठा भी। लालच अच्छी चीज है लेकिन कला इस मामले में प्रभावित होती है क्योंकि यह आर्थिक व सामाजिक बाजार पर निर्भर करता है। वास्तविकताएं आर्थिक परिवर्तन के अधीन है। यह सच है कि सभी लोग पैसे बना रहे हैं लेकिन सच यह है कि पैसा सभी को बना रहा है।
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रजा सौराष्ट्र पेंटिंग बनाने का वर्ष : 1983 बिक्री का वर्ष : 2010 मूल्य : 16,51,34,000 तैयब मेहता बु ल्स पेंटिंग बनाने का वर्ष : 2007 बिक्री का वर्ष : 2011 मूल्य : 12,43,66,000 सूजा बर्थ पेंटिंग निर्माण का वर्ष : 1955 बिक्री का वर्ष : 2008 मूल्य : 11,25,00,000 अर्पिता सिंह विश ड्रीम पेंटिंग निर्माण का वर्ष : 2000 बिक्री का वर्ष : 2010 मूल्य : 9,56,21,000 मकबूल फिदा हुसैन बैटल ऑफ गंगा एंड यमुना पेंटिंग निर्माण का वर्ष : 1971- 1972 बिक्री का वर्ष : 2008 मूल्य : 6,50,00,000
रजा की बनाई पेंटिंग्स करीब बीस से ढाई लाख अमेरिकी डॉलर में बिकीं तो उन्हें अपने जमाने के कलाकारों में सबसे महंगे बिकने वाले कलाकारों में शुमार किया गया। 2010 को उनकी कलाकृति ‘सौराष्ट्र’ क्रिस्टी ऑक्शंस में 16 करोड़ 51 लाख 34 हजार रुपये में बिकी
http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=20

Thursday, April 12, 2012

मन लागा यार फ़कीरी में..

मुकुल शिवपुत्र किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. प्रभात खबर में युवा पत्रकार प्रीति सिंह परिहार ने उन पर एक मार्मिक लेख लिखा है. आप भी पढ़िए-
फ़िर तेरा वक्त-ए-सफ़र याद आया. मिर्जा गालिब के इस मिसरे की तर्ज पर हम हर हफ्ते एक ऐसी शख्सीयत से आपको मिलवाते हैं, बीते कल में जिनकी कामयाबी के चर्चे होते थे, पर आज शायद ही उनकी बात कहीं होती है. मिलिये इस बार मुकुल शिवपुत्र से.

जमाने भर की कवायदों और रवायतों के बीच एक मन खुद को इतना बेचैन पाता है कि कभी नर्मदा के इस पार कभी उस पार के मंदिरों, मठों, जंगलों में भटकता रहता है. लेकिन उसकी बेचैनी को कहीं कोई ठहराव नहीं मिलता. सफ़लता और शोहरत की मंजिल की ओर जाने वाले हाइवे को छोड़कर उजाड़ पगडंडियों में गुमनामी की चादर लपेटकर भटकने वाला यह मन है प्रसिद्ध खयाल गायक पंडित मुकुल शिवपुत्र का.
मुकुल नाम की शख्सीयत की रगों में विलक्षण शास्त्रीय गायन प्रतिभा बसती है पर उस प्रतिभा की एवज में कोई मुकाम पाने की इच्छा का न होना हर किसी को हैरान करता है. कुछ लोग इसे विक्षिप्तता का नाम भी देते रहते हैं जब-तब. लेकिन उन्हें जानने वाले यह बखूबी जानते हैं कि यह विक्षिप्तता नहीं, एक तरह की विरक्ति है. जीवन से ही नहीं, भौतिकता में डूबे संसार से भी. बने-बनाये कायदों में खुद को ढालने के बजाय दुनिया को अपने तरीके से देखना और उससे एक दूरी बनाकर जीना एक तरह की फ़कीरी है.
दुनियादारी की परवाह किये बिना मुकुल शिवपुत्र इस फ़कीरी में ही जीते हैं. कभी-कभार वह कहीं से भटकते हुए मंच पर आते हैं और अपने गायन से श्रोताओं को अचंभित कर फ़िर अचानक ओझल हो जाते हैं. कई बार ऐसा भी होता है कि आयोजक उनका इंतजार करते रहते हैं और वह बीच रास्ते से ही लौट जाते हैं. अपनी कमान उन्होंने अपने बोहेमियन मन को सौंप दी हो जैसे, मन ने कहा हां, तो ठीक, मन ने कहा न, तो भी ठीक.
दरअसल, मुकुल निर्गुण परंपरा के गायक हैं और कबीर के लिखे को गाते ही नहीं जीते भी हैं. मुकुल शिवपुत्र को शास्त्रीय संगीत विरासत में मिला. वह महान शास्त्रीय गायक पंडित कुमार गंधर्व के सबसे बड़े पुत्र हैं. इसलिए बहुत छोटी उम्र में संगीत में रच बस गये. शास्त्रीय संगीत की पहली इबारत पिता से ही सीखी. खयाल गायकी के गुर भी उन्हीं से सीखे. लेकिन संगीत शिक्षा के बाद कभी पिता के साथ नहीं रहे. बाद में ध्रुपद और धमार की शिक्षा केजी गिंडे से ली.
एक साल तक एमडी रंगनाथन से कर्नाटक संगीत की दीक्षा भी ली. इस तरह शास्त्रीय संगीत में पारंगत होकर शास्त्रीय आधार पर लोकगीत और भजन गाये. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीतज्ञों में से मुकुल एक मात्र ऐसे गायक हैं जिन्होंने बीस साल की लंबी अवधि तक सिर्फ़ मंदिरों में अपनी गायन प्रस्तुति दी. उनके बारे में कहा जाता है कि आज के दौर में अगर पांच सर्वÞोष्ठ भारतीय शास्त्रीय गायकों का नाम लिया जाए तो उनमें मुकुल शिवपुत्र भी होंगे.
रागों को लेकर उनकी समझ विलक्षण बतायी जाती है. राग जसवंती को अन्य गायक तान तथा आलाप के साथ गाते हैं, लेकिन मुकुल उसे असली रूप में पेश करते हैं. मुकुल के बारे में यह भी कम लोग ही जानते होंगे कि पंडित भीमसेन जोशी के बाद राग भैरवी में उनका कोई सानी नहीं.
बहुत छोटी उम्र से अपनी गायन प्रतिभा के चलते पहचान बना लेने वाले मुकुल ने भले संगीत विरासत में पाया लेकिन उन्होंने पिता के नाम और प्रभाव से खुद को बचाते हुए अपने संगीत को संपन्न किया. लेकिन वे दुनियावी दस्तूर के मुताबिक नहीं चल सके. कहते हैं कि पत्नी के असमय देहांत ने उन्हें दुनिया से ऐसा विरक्त कर दिया कि अपने एकमात्र पुत्र को परिवार के पास छोड़कर खुद नर्मदा किनारे नेमावर में सिद्धिनाथ मंदिर में रहने लगे. बाहरी दुनिया से खुद को अलग कर लिया, संगीत प्रस्तुतियां देना भी बंद कर दिया. संगीत की साधना चलती रही. अरसे तक यह मंदिर उनका ठिकाना बना रहा.
लेकिन फ़कीरी की तासीर उन्हें कहीं ठहरने नहीं देती. गुमनाम की तरह यहां-वहां भटकने की खब्त में कई बार नीम बेहोशी में किसी सड़क या रेलवे प्लेटफ़ार्म पर मिलते हैं. पहचान लिए जाने के बाद कुछ दिन तक की देखभाल में पुराने दोस्तों को उनके ठीक होने की गुंजाइश भी दिख जाती है. पर यह उम्मीद जल्दी ही हाथ से छूट जाती है. अपार संभावनाओं से भरे हुए सत्तावन वर्षीय शास्त्रीय गायक मुकुल शिवपुत्र के प्रसंशकों को उन्हें साक्षात सुनने का मौका गाहे-बगाहे ही मिल पाता है.
इस कभी कभार के क्रम में उनके मुरीदों ने उन्हें वर्ष 2010 में इंदौर में उनने पिता की जयंती पर सुना. तमाम घुमक्कड़ी और फ़क्कड़ी के बावजूद कुछ जगहों में वह नियम से उपस्थित हो जाते हैं. ऐसे ही बच्चों को शास्त्रीय संगीत सिखाने वाली संस्था स्पिक मैके के कार्यक्रम में चाहे जहां हों, पहुंच जाते हैं. लेकिन फ़िर स्वेच्छा से चुनी हुई उस फ़कीरी दुनिया में लौट जाते हैं, जिसके लिये कबीर लिख गये हैं- ‘आखिर यह तन छार मिलेगा, कहां फ़िरत मगरूरी में, मन लागा यार फ़कीरी में.

Tuesday, April 10, 2012

भीख मांगता अभिनेता

कहा जाता है दीया तले अँधेरा. यह कहानी शत-प्रतिशत संतोष खरे पर सटीक बैठती है. यह आलेख हमने मंडली ब्लॉग से साभार लिया है और लिखा है पुंज प्रकाश ने...विनीत उत्पल 

ये माया की नगरी की एक कहानी है, पर इसे केवल मायानगरी की कहानी कहना भी एक माया ही होगा | हम भी तो एक किस्म की मायानगरी में ही रहते हैं | यहाँ जो जैसा दिखता है वो बिलकुल वैसे का वैसा तो हरगिज़ ही नहीं होता | यहाँ मेहनत से माया कमाई जाती है और फिर माया से माया | यहाँ मेहनत, प्रतिभा आदि – आदि चीजों के अलावा किस्मत जैसी कोई चीज़ अगर अक्सर आपके पास है तो कम से कम जैसे तैसे पेट भरने की कोई दिक्कत नहीं पर अगर ना हो तो कला का जुनून कटोरे पर जाके ही खत्म होगा | 
यहाँ जितनी चमक-दमक है उतनी ही क्रूरता भी , या क्रूरता की मात्रा शायद ज्यादा ही हो | यहाँ चेहरों की खतरनाक झुर्रियाँ महंगे पफ़, पाउडरों और रुज़ से ढकी रहतीं हैं | यहाँ सफलता-असफलता पानी की लकीर है जो पल - पल बनती और बिगड़ती रहतीं है | एक वाक्य में कहना हो तो ये कहा जा सकता है की 70 एमएम के पीछे की दुनिया, दुनिया के पीछे 70 एमएम का असली चेहरा ठीक वैसा ही है जैसे मुक्तिबोध के चाँद का मुंह का यानि की चाँद का मुंह टेढ़ा | इस पर्दे और दुनिया ने जाने कितनी जिंदगियां बनाई और जाने कितनी जिंदगियां तबाह की |
चलिए, सुपर-हिट फिल्म मदर इंडिया का वो सीन याद करिये जिसमें गांव का ज़मींदार सुनील दत्त को मारता है और नरगिस दत्त रोते हुए कहती हैं कि मेरे बेटे पर रहम करो...मत मारो। भारतीय सिनेमा की अज़ीम-ओ-शान फिल्म मदर इंडिया में ज़मींदार की ये छोटी-सी भूमिका निभाने वाला शख्स आज लखनऊ की सड़कों पर भीख मांग रहा है । नाम है संतोष कुमार खरे । हम यहाँ कोई फ़िल्मी पटकथा नहीं सुना रहे बल्कि फ़िल्मी पटकथा के पीछे की सच्चाई से सीधा – सीधा दीदार करवाने का एक छोटा सा प्रयास भर कर रहे हैं |
लखनऊ में संतोष कुमार पर एक पत्रकार की नजर तब पड़ी जब उन्होंने एक चायवाले से अंग्रेजी में चाय पिलाने की गुजारिश की। फटेहाल बुजुर्ग के अंग्रेजी में मिन्नत को सुनकर पत्रकार ने जब संतोष से बात की तो दाने-दाने को मोहताज इस कलाकार की जो कहानी सामने आई वो कुछ इस प्रकार है  ।
बॉलीवुड की बड़ी- बड़ी फिल्मों में कई ऐसे अभिनेता होते हैं जो छोटे-मोटे रोल करते हैं | इस तरह के रोल में अभिनय करने वालों को आम तौर पर जूनियर आर्टिस्ट कहा जाता है. जूनियर आर्टिस्ट भले ही बड़े मुकाम नहीं बना पाते पर उनके बिना कोई भी फिल्म पूरी नहीं हो सकती | एक फिल्म में स्टार चाहे एक हो पर जूनियर आर्टिस्टों की संख्या सैकड़ों में होती है | इनमें से जो अच्छा काम करते हैं और बहुत सारी चीज़ों से तालमेल बनाकर रख पाने में सफल होतें हैं उन्हें फिल्में मिलती रहती हैं और वो लगातार पर्दे पर दिखाई देते हैं, साथ ही उनकी दाल रोटी का जुगाड़ भी होता रहता है | जो किसी करणवश ऐसा नहीं कर पाते उनकी हालत कमोबेश संतोष कुमार खरे जैसी ही होती है | यहाँ दौडने वाले घोड़े को ही पाला जाता है, लंगड़े घोड़े को गोली तो नहीं मारी जाती पर उनकी किस्मत सड़क पर आवारा घूमते पशुओं सी ही होती है | शायद इसीलिए कहा जाता है कि चढ़ते सूरज को तो दुनिया सलाम करती है, ढलते सूरज को कौन पूछता है |
दुनिया की याद्दाश्त बड़ी छोटी है , वक्त बड़ी चीज़ है | वक्त के साथ-साथ तो लोग बड़े-बड़े अभिनेताओं को भूल जाते हैं तो फिर जूनियर आर्टिस्ट की बात ही क्या | पर अफसोस तब होता है जब कोई जूनियर आर्टिस्ट बदहाली में जीने को मजबूर हो जाता है | संतोष खरे ऐसे ही एक जूनियर आर्टिस्ट थे |
संतोष भले ही जूनियर आर्टिस्ट थे लेकिन अभिनय और क्लासिकल डांस में वो माहिर हैं । संतोष बताते हैं कि उन्हें तीन चीजों में महारत हासिल है-अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू भाषा, अभिनय और नृत्य । ऐसा नहीं हैं कि उन्होंने पैसा नहीं कमाया। लेकिन उनका कहना है कि सैकड़ों फिल्में करने के बाद भी पैसा उनके नसीब में नहीं रहा । जब पैसा था तब उऩ्होंने अपने भविष्य की बजाय दूसरों के भविष्य पर ज्यादा ध्यान दिया । आज जब नहीं है तो कोई उनकी सुध लेने वाला नहीं | ये समाज की सच्चाई है | आज भी अभिनय का जिक्र छिड़ते ही उनकी आंखें चमक उठती हैं । सालों पहले फिल्मों में उनके बोले गए डायलॉग उन्हें ज़बानी याद हैं । फिरोज़ खान के साथ फिल्म काला सोना का डायलॉग वो बड़ी खुशी से सुनाते हैं । कई फिल्मों में हीरो के साथ उन्होंने क्लासिकल डांस किया है। संतोष कुमार खरे को आज कोई नहीं पहचानता | उन्होने अभिनय किया, सैंकड़ों फिल्मों में छोटी मगर महत्वपूर्ण भूमिकाएं अदा कर उन्होने अपने कलाकार होने का फ़र्ज़ बखूबी निभाया, लेकिन आज हालात अच्छे नहीं है, वो भीख मांग रहे हैं, दर दर की ठोकरें खा रहे हैं, वो मजबूर हैं, बेबस हैं, उन्होने पहले फिल्मो के लिये संघर्ष किया था, आज दो जून की रोटी के लिये संघर्ष कर रहे हैं|
लखनऊ के स्टेशन एवं मंदिरों पर भीख मांगता हुआ यह बुजुर्ग चाय वाले से अंग्रेजी में चाय मांगकर लोगों को हैरत में डाल देता हैं | जब ये भिखारी सा दिखने वाला आदमी अपने साथी भिखारियों को अपने फिल्म अभिनेता होने की बात कहता है तो वो भी इस पर यकीन नहीं करते, लेकिन सच्चाई ये ही है | लेकिन जिंदगी की भीड़ में कई चेहरे कहीं गुम हो गए, अब खरे भी खुद के चेहरे को एक कलाकार के रूप में नहीं पहचान पाते | संतोष खरे ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि जिंदगी इस मुकाम पर आ खड़ी होगी, जहां उन्हें दर दर की ठोकरें खानी पडेंगी और दो जून की रोटी के लिये भीख भी मांगनी पड़ेगी | खरे आज मजबूर हैं, वो पैरो से लाचार हैं | करीब 6 महीने पहले हजरतगंज चौराहे के पास नशे में धुत्त एक कार चालक ने संतोष को टक्कर मार दी थी। तब से संतोष चलने-फिरने में लाचार हैं और बैसाखियों के सहारे ही चलते हैं। दिन भर हनुमान मंदिर के बाहर बैठे रहते हैं। एनएफडीसी जूनियर आर्टिस्टों की मदद के लिए साढ़े चार हजार रुपए महीने की पेशन देता था लेकिन पिछले सात महीने से वो भी बंद है। छोटा भाई जबलपुर रेलवे में एकाउंटेंट के पद पर है । वो जानता है कि उसके बड़े भाई लखनऊ में दाने-दाने को मोहताज हैं लेकिन कभी देखने नहीं आया।
खरे की फिल्मी कहानी - 
जवानी के दिनों में संतोष खरे के सिर पर फिल्मो का भूत सवार हो गया | फिल्मों में काम करने के उत्सुक हज़ारों नवयुवकों की तरह वो भी अपना पुश्तैनी गांव छोड़कर मुंबई जा पहुंचे और फिल्मो में काम के लिये संघर्ष करने लगे | 1942 में यूपी के बांदा में पोस्टमास्टर के घर में पैदा हुए संतोष बीकॉम करने के बाद मुंबई चले गए थे। नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन में जूनियर आर्टिस्ट के रुप में भर्ती होने के बाद फिल्मों में छोटे-मोटे रोल मिलने लगे। पहली बार उन्हें पर्दे पर आने का मौका मिला फिल्म संत ज्ञानेश्वर से | जिसमे खरे ने एक छोटी सी भूमिका अदा की | उसके बाद खरे को फिल्मो में खूब मौका मिला |  तब उन्हें दस रुपए प्रतिदिन के हिसाब से मिलते थे। मदर इंडिया में सुनीत दत्त के साथ चंद मिनट के रोल के बाद संतोष की गाड़ी चल निकली। उन्होंने दिलीप कुमार के साथ यहूदी की लड़की, मुगल-ए-आजम, कमाल अमरोही की पाकीजा सहित करीब एक हजार फिल्मों में जूनियर आर्टिस्ट की भूमिका निभाई । सुपरहिट फिल्म गूंज उठी शहनाई में संतोष को एक बेहतरीन रोल मिला । मेरा नाम जोकर, काला सोना, हरिश्चंद्र, पाकीजा, मदर इंडिया जैसी सुपरहिट फिल्मों में खरे ने काम किया. लोग इन हिट फिल्मों को आज भी नहीं भूले लेकिन इन फिल्मों के इस चेहरे का सभी पहचानने से आज इंकार कर देते हैं. 
प्यार ने रख दिया कुंवारा 
फिल्म गूंज उठी शहनाई की शूटिंग के दौरान सतारा जिले में उन्हें एक जूनियर आर्टिस्ट आयशा से मोहब्बत हो गई थी। शूटिंग के बाद फिल्म की यूनिट जब मुंबई लौट रही थी तो वो आयशा को रोता छोड़कर चले आए । आयशा को अपना न बना सके | फिल्म तो हिट हो गई लेकिन उनकी जिंदगी की फिल्म फ्लाप हो गई. जब वो वापस लौटे तो उनकी मुहब्बत लुट चुकी थी | इसके बाद खरे ने शादी नहीं करने का फैसला लिया और पूरी उम्र अकेले गुजार दी | 
बॉलीवुड के बाद शरीर ने छोड़ा साथ
खरे ने फिल्मों में काम किया, लेकिन एक वक्त के बाद उन्हें फिल्मे मिलना बंद हो गई. बॉलीवुड ने उन्हें बिसरा दिया | कुछ दिनों तक तो सब चलता रहा, लेकिन एक दिन खरे के सामने रोटी का संकट आ खड़ा हुआ | शरीर ने साथ देना छोड़ दिया, मेहनत मजदूरी अब बुढ़े शरीर से करना संभव नहीं था, लिहाजा खरे को मजबूरी में भीख मांगकर गुजारा करना पड़ रहा है | 
याद हैं सारे फिल्मी डायलाग 
खरे का आज भी उनके द्वारा बोले गये सभी डॅायलाग जुबानी याद हैं | खरे आज भी आते जाते इन डॅायलाग्स को दोहराते रहते हैं |पर आज हालत ये है कि संतोष बॉलीवुड का ज़िक्र आते ही नाराज़ हो जाते हैं | और वो नाराज़ हों भी क्यों न, आखिर फिल्म संसार से उन्हें क्या मिला | जब तक काम करते थे लोग पूछते थे, जब काम छूट गया तो एक-एक पैसे को तरस गए | राज कपूर और सुनील दत्त जैसे नामी-गिरामी कलाकारों के साथ काम करने वाला जूनियर आर्टिस्ट आज भीख मांग कर गुज़ारा कर रहा है | अब बॉलीवुड के संतोष खरे जैसों की सुध लेने वाला कोई है क्या ?
बांदा के रहने वाले संतोष पिछले दो सालों से लखनऊ के दारुल शफा के बी ब्लॉक में एक तख्त पर ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं | उनका कुछ पैसा परिवारवालों ने ले लिया और कुछ बाहर वालों ने | अब वह खालीहाथ हैं | गुज़ारे के लिए मंदिर जाकर दान देने वाले भक्तों से जो कुछ मिलता है उसी से अपना गुज़ारा चलाते हैं |
यह कहानी किसी एक की नहीं | मायानगरी की माया में लाखों आज भी उलझे पड़ें हैं | किसका क्या अंजाम होगा वो अभी समय के गर्त में कैद है | पर एक बात साफ़ है की सुंदरता के पीछे छिपी क्रूरता दिखती भले न हो पर होती तो ज़रूर ही है | यह सच्चाई मायानगरी की भी है और समाज की भी |

Friday, March 23, 2012

एंकर नहीं शेखर

शेखर सुमन दोबारा छोटे परदे पर आ रहे हैं। 'मूवर्स एंड शेकर्स" में वे आज के मुद्दों पर कटाक्ष करते हैं, वहीं अपने क्षेत्र के कुछ बेहतर करने वालों से रू-ब-रू भी होते हैं। दोबारा शुरू हुए इस शो में वे अन्ना हजारे को लाना चाहते थे लेकिन यह हो न सका. पहले शो में गोविंदा का आना हुआ और इस शो  के शुरू होने से पहले विनीत उत्पल  को बताया

मूवर्स एंड शेकर्स

जिस तरह मेरी जिंदगी में 'उत्सव" मील का पत्थर है, उसी तरह रिपोर्टर, देख भाई देख, पोल खोल है तो मूवर्स एंड शेकर्स भी है। यह दूसरा चांस है जब लोग मेरे साथ होंगे। चूंकि दोबारा हमारी परंपरा में है, इसलिए 11 साल बाद मैं फिर दर्शकों के सामने हूं दोबारा। इस बार थोड़ा नया कांसेप्ट होगा। वह शो 1997 से लेकर 2001 तक चला था। 2012 में फिर से दोबारा शुरू हो रहा है। इस बार सेट नया है, सेलिब्रोटी नये हैं।
ग्यारह साल बाद
एक्टर गलतियां करता है, उससे सीखता है। समय के साथ लोगों की सोच भी बदलती है, फिलॉस्फी बदलती है। इस शो में वास्तविकता है, ताजगी है, विविधता है और 11 साल बाद पहले के मुकाबले अधिक परिपक्व शेखर से आपकी मुलाकात होगी। कंट्रोवर्सी तो होती रहती है लेकिन कई बार काफी दिलचस्प और गंभीर बातें भी सामने आती हैं। लोग अभी तक यह नहीं सीख पाए हैं कि खुद पर कैसे हंसा जाए।
'हम सभी भारतीयों का डीएनए एक जैसा है। सोच भी लगभग एक-सी ही होती है। कुछ आप जीतते हैं तो कुछ आप हारते भी हैं'
लेट नाइट शो
इस शो के लेट नाइट होने का कारण यह है कि हमारे देश में अधिकतर लोग नौकरी-पेशे वाले हैं और वह जब थक-हार कर घर आते हैं तो या तो वे सोना चाहते हैं या फिर टीवी पर हल्के-फुल्के मनोरंजन वाले शो देखना पसंद करते हैं। उनको ध्यान में रखकर शो को लेट नाइट रखा गया है।
व्यंग्य या कॉमेडी
हास्य एक पक्ष है। अक्षय कुमार फिल्म में कॉमेडी करते हैं, शाहरुख खान भी कॉमेडी करते हैं तो वह कॉमेडियन नहीं हो जाते बल्कि वह एक्टर होते हैं। आर.के. लक्ष्मण के कार्टून से प्रभावित हूं। मैंने उसी कार्टून के आम आदमी को जबान दी है। मेरा मानना है कि मूवर्स एंड शेकर्स कभी खत्म हुआ ही नहीं था क्योंकि हम लोग हर पल कटाक्ष करते हैं। मैं एंकर नहीं हूं, अभिनेता हूं और सिर्फ अभिनय करता हूं।
पहचान
मूवर्स एंड शेकर्स में मेरी पहचान बनी। सीजन वन में आठ सौ शो चला था और कोई भी शो इसके नजदीक नहीं आ सका। अंग्रेजी में एक कहावत है, जैक ऑफ आल ट्रेड, मास्टर ऑफ नन।इसलिए मैं सब कुछ करने की कोशिश करता हूं। लेकिन सब कुछ को कॉमेडी में नहीं बांधा जा सकता है। व्यंग्य की मार दी जा सकती है। मैं जनता की आवाज बनना चाहता हूं।
जिंदगीजिंदगी में एक चौराहा आता है, एक दौर आता है जब आप सोचते हैं कि कहां जाना है। जो सूरत मिलनी चाहिये, नहीं मिल रही है। सफलता के लिए विश्लेषण जरूरी है। क्रिटिसिज्म जो करता है, वह आपका दोस्त होता है, सही राह दिखाता है। जिंदगी में कंपीटिशन हमेशा रहा है, चैनल एक था और सभी उसमें आना चाहते थे।
अफसोस
काश, इतनी सारी जिम्मेदारियां नहीं होतीं। इतने पब्लिक डोमैन में होने के कारण काफी मिस करता हूं। थियेटर के लोगों की तरह जीना चाहता हूं। दिल्ली के श्रीराम सेंटर से ट्रेनिंग ली थी। आजाद वातावरण में रहना चाहता हूं लेकिन काम के प्रेशर के कारण कुछ कर नहीं पाता हूं।  मनोहर सिंह, पंकज कपूर, राजेश, विवेक, उत्तरा ओबर काफी याद आते हैं।
गेस्ट
हम सभी भारतीयों का डीएनए एक जैसा है। सोच भी लगभग एक-सी ही होती है। कुछ आप जीतते हैं तो कुछ आप हारते भी हैं। जो न्यूज में होंगे, हम उन्हें बतौर गेस्ट बुलाएंगे। कहने का अपना ढंग होता है। कोई अपशब्द या गाली का प्रयोग करता है तो कोई उसी बात को सभ्य भाषा में कह देता है। वक्त से आगे कभी भी ऑडियंस नहीं देखता।

Friday, March 16, 2012

बिहार कला पुरस्कार से सम्मानित होंगे 21 कलाकार


बिहार सरकार ने कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाले 21 वरीय और युवा कलाकारों को बिहार कला पुरस्कार से सम्मानित करने का फैसला किया है। बिहार शताब्दी दिवस समारोह के मौके पर गांधी मैदान में 22 मार्च को यह सम्मान दिया जाएगा।
इसमें चाक्षुष कला (विजुअल आर्ट) के आठ और प्रदर्श कला (परफार्मिंग आर्ट) के 13 कलाकार शामिल हैं। पेंटिंग, लोकगायन, शास्त्रीय गायन व कला लेखन के लिए 11 वरिष्ठ और 10 युवा कलाकारों को स्मृति चिह्न के साथ 35 हजार रुपये की राशि व युवा कलाकारों को 10 हजार रुपये की राशि दी जाएगी।
चाक्षुष कला:
राधामोहन पुरस्कार (समकालीन कला): वीरेश्वर भट्टाचार्य व राजेश राम
कुमुद शर्मा पुरस्कार (महिला कलाकार): शांभवी व अनिता कुमारी
सीता देवी पुरस्कार (लोककला): शिबन पासवान व राजकुमार लाल
दिनकर पुरस्कार (कला लेखन): अवधेश अमन व भुवनेश्वर भास्कर
प्रदर्श कला
पं. राम चतुर मल्लिक पुरस्कार (शास्त्रीय गायन): इंद्र किशोर मिश्रा व शमित मल्लिक
भिखारी ठाकुर पुरस्कार (रंगकर्म): गोपाल प्रसाद सिन्हा व प्रवीण गुंजन
विंध्यवासिनी देवी पुरस्कार (लोकगायन): बृजबाला देवी, अनिल सदा व रंजना झा
रामेश्वर सिंह कश्यप पुरस्कार (कला लेखन): अविनाथ चंद्र झा व मृत्युंजय प्रभाकर
बिस्मिल्लाह खां पुरस्कार (वाद्यवादन): रौशन अली व उमा शंकर
अम्बपाली पुरस्कार (नृत्य): रंजना सरकार व अपूर्वा सृष्टि