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Thursday, April 12, 2012

मन लागा यार फ़कीरी में..

मुकुल शिवपुत्र किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. प्रभात खबर में युवा पत्रकार प्रीति सिंह परिहार ने उन पर एक मार्मिक लेख लिखा है. आप भी पढ़िए-
फ़िर तेरा वक्त-ए-सफ़र याद आया. मिर्जा गालिब के इस मिसरे की तर्ज पर हम हर हफ्ते एक ऐसी शख्सीयत से आपको मिलवाते हैं, बीते कल में जिनकी कामयाबी के चर्चे होते थे, पर आज शायद ही उनकी बात कहीं होती है. मिलिये इस बार मुकुल शिवपुत्र से.

जमाने भर की कवायदों और रवायतों के बीच एक मन खुद को इतना बेचैन पाता है कि कभी नर्मदा के इस पार कभी उस पार के मंदिरों, मठों, जंगलों में भटकता रहता है. लेकिन उसकी बेचैनी को कहीं कोई ठहराव नहीं मिलता. सफ़लता और शोहरत की मंजिल की ओर जाने वाले हाइवे को छोड़कर उजाड़ पगडंडियों में गुमनामी की चादर लपेटकर भटकने वाला यह मन है प्रसिद्ध खयाल गायक पंडित मुकुल शिवपुत्र का.
मुकुल नाम की शख्सीयत की रगों में विलक्षण शास्त्रीय गायन प्रतिभा बसती है पर उस प्रतिभा की एवज में कोई मुकाम पाने की इच्छा का न होना हर किसी को हैरान करता है. कुछ लोग इसे विक्षिप्तता का नाम भी देते रहते हैं जब-तब. लेकिन उन्हें जानने वाले यह बखूबी जानते हैं कि यह विक्षिप्तता नहीं, एक तरह की विरक्ति है. जीवन से ही नहीं, भौतिकता में डूबे संसार से भी. बने-बनाये कायदों में खुद को ढालने के बजाय दुनिया को अपने तरीके से देखना और उससे एक दूरी बनाकर जीना एक तरह की फ़कीरी है.
दुनियादारी की परवाह किये बिना मुकुल शिवपुत्र इस फ़कीरी में ही जीते हैं. कभी-कभार वह कहीं से भटकते हुए मंच पर आते हैं और अपने गायन से श्रोताओं को अचंभित कर फ़िर अचानक ओझल हो जाते हैं. कई बार ऐसा भी होता है कि आयोजक उनका इंतजार करते रहते हैं और वह बीच रास्ते से ही लौट जाते हैं. अपनी कमान उन्होंने अपने बोहेमियन मन को सौंप दी हो जैसे, मन ने कहा हां, तो ठीक, मन ने कहा न, तो भी ठीक.
दरअसल, मुकुल निर्गुण परंपरा के गायक हैं और कबीर के लिखे को गाते ही नहीं जीते भी हैं. मुकुल शिवपुत्र को शास्त्रीय संगीत विरासत में मिला. वह महान शास्त्रीय गायक पंडित कुमार गंधर्व के सबसे बड़े पुत्र हैं. इसलिए बहुत छोटी उम्र में संगीत में रच बस गये. शास्त्रीय संगीत की पहली इबारत पिता से ही सीखी. खयाल गायकी के गुर भी उन्हीं से सीखे. लेकिन संगीत शिक्षा के बाद कभी पिता के साथ नहीं रहे. बाद में ध्रुपद और धमार की शिक्षा केजी गिंडे से ली.
एक साल तक एमडी रंगनाथन से कर्नाटक संगीत की दीक्षा भी ली. इस तरह शास्त्रीय संगीत में पारंगत होकर शास्त्रीय आधार पर लोकगीत और भजन गाये. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीतज्ञों में से मुकुल एक मात्र ऐसे गायक हैं जिन्होंने बीस साल की लंबी अवधि तक सिर्फ़ मंदिरों में अपनी गायन प्रस्तुति दी. उनके बारे में कहा जाता है कि आज के दौर में अगर पांच सर्वÞोष्ठ भारतीय शास्त्रीय गायकों का नाम लिया जाए तो उनमें मुकुल शिवपुत्र भी होंगे.
रागों को लेकर उनकी समझ विलक्षण बतायी जाती है. राग जसवंती को अन्य गायक तान तथा आलाप के साथ गाते हैं, लेकिन मुकुल उसे असली रूप में पेश करते हैं. मुकुल के बारे में यह भी कम लोग ही जानते होंगे कि पंडित भीमसेन जोशी के बाद राग भैरवी में उनका कोई सानी नहीं.
बहुत छोटी उम्र से अपनी गायन प्रतिभा के चलते पहचान बना लेने वाले मुकुल ने भले संगीत विरासत में पाया लेकिन उन्होंने पिता के नाम और प्रभाव से खुद को बचाते हुए अपने संगीत को संपन्न किया. लेकिन वे दुनियावी दस्तूर के मुताबिक नहीं चल सके. कहते हैं कि पत्नी के असमय देहांत ने उन्हें दुनिया से ऐसा विरक्त कर दिया कि अपने एकमात्र पुत्र को परिवार के पास छोड़कर खुद नर्मदा किनारे नेमावर में सिद्धिनाथ मंदिर में रहने लगे. बाहरी दुनिया से खुद को अलग कर लिया, संगीत प्रस्तुतियां देना भी बंद कर दिया. संगीत की साधना चलती रही. अरसे तक यह मंदिर उनका ठिकाना बना रहा.
लेकिन फ़कीरी की तासीर उन्हें कहीं ठहरने नहीं देती. गुमनाम की तरह यहां-वहां भटकने की खब्त में कई बार नीम बेहोशी में किसी सड़क या रेलवे प्लेटफ़ार्म पर मिलते हैं. पहचान लिए जाने के बाद कुछ दिन तक की देखभाल में पुराने दोस्तों को उनके ठीक होने की गुंजाइश भी दिख जाती है. पर यह उम्मीद जल्दी ही हाथ से छूट जाती है. अपार संभावनाओं से भरे हुए सत्तावन वर्षीय शास्त्रीय गायक मुकुल शिवपुत्र के प्रसंशकों को उन्हें साक्षात सुनने का मौका गाहे-बगाहे ही मिल पाता है.
इस कभी कभार के क्रम में उनके मुरीदों ने उन्हें वर्ष 2010 में इंदौर में उनने पिता की जयंती पर सुना. तमाम घुमक्कड़ी और फ़क्कड़ी के बावजूद कुछ जगहों में वह नियम से उपस्थित हो जाते हैं. ऐसे ही बच्चों को शास्त्रीय संगीत सिखाने वाली संस्था स्पिक मैके के कार्यक्रम में चाहे जहां हों, पहुंच जाते हैं. लेकिन फ़िर स्वेच्छा से चुनी हुई उस फ़कीरी दुनिया में लौट जाते हैं, जिसके लिये कबीर लिख गये हैं- ‘आखिर यह तन छार मिलेगा, कहां फ़िरत मगरूरी में, मन लागा यार फ़कीरी में.

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