कहा जाता है दीया तले अँधेरा. यह कहानी शत-प्रतिशत संतोष खरे पर सटीक बैठती है. यह आलेख हमने मंडली ब्लॉग से साभार लिया है और लिखा है पुंज प्रकाश ने...विनीत उत्पल
ये माया की नगरी की एक कहानी
है, पर इसे केवल मायानगरी की कहानी कहना भी एक माया ही होगा | हम भी तो एक किस्म
की मायानगरी में ही रहते हैं | यहाँ जो जैसा दिखता है वो बिलकुल वैसे का वैसा तो
हरगिज़ ही नहीं होता | यहाँ मेहनत से माया कमाई जाती है और फिर माया से माया | यहाँ
मेहनत, प्रतिभा आदि – आदि चीजों के अलावा किस्मत जैसी कोई चीज़ अगर अक्सर आपके पास
है तो कम से कम जैसे तैसे पेट भरने की कोई दिक्कत नहीं पर अगर ना हो तो कला का जुनून
कटोरे पर जाके ही खत्म होगा |
यहाँ जितनी चमक-दमक है उतनी ही क्रूरता भी , या क्रूरता
की मात्रा शायद ज्यादा ही हो | यहाँ चेहरों की खतरनाक झुर्रियाँ महंगे पफ़, पाउडरों
और रुज़ से ढकी रहतीं हैं | यहाँ सफलता-असफलता पानी की लकीर है जो पल - पल बनती और बिगड़ती
रहतीं है | एक वाक्य में कहना हो तो ये कहा जा सकता है की 70 एमएम के पीछे की दुनिया, दुनिया के
पीछे 70 एमएम का असली चेहरा ठीक वैसा ही है
जैसे मुक्तिबोध के चाँद का मुंह का यानि की चाँद का
मुंह टेढ़ा | इस पर्दे और दुनिया ने जाने कितनी जिंदगियां बनाई और जाने कितनी
जिंदगियां तबाह की |
चलिए, सुपर-हिट फिल्म मदर इंडिया का
वो सीन याद करिये जिसमें गांव का ज़मींदार सुनील दत्त को मारता है और नरगिस दत्त
रोते हुए कहती हैं कि मेरे बेटे पर रहम करो...मत मारो। भारतीय सिनेमा की अज़ीम-ओ-शान
फिल्म मदर इंडिया में ज़मींदार की ये छोटी-सी भूमिका निभाने वाला शख्स आज लखनऊ की
सड़कों पर भीख मांग रहा है । नाम है संतोष कुमार खरे । हम यहाँ कोई फ़िल्मी पटकथा
नहीं सुना रहे बल्कि फ़िल्मी पटकथा के पीछे की सच्चाई से सीधा – सीधा दीदार करवाने का
एक छोटा सा प्रयास भर कर रहे हैं |
लखनऊ में संतोष कुमार
पर एक पत्रकार की नजर तब पड़ी जब उन्होंने एक चायवाले से अंग्रेजी में चाय पिलाने
की गुजारिश की। फटेहाल बुजुर्ग के अंग्रेजी में मिन्नत को सुनकर पत्रकार ने जब
संतोष से बात की तो दाने-दाने को मोहताज इस कलाकार की जो कहानी सामने आई वो कुछ इस
प्रकार है ।
बॉलीवुड की बड़ी- बड़ी फिल्मों में
कई ऐसे अभिनेता होते हैं जो छोटे-मोटे रोल करते हैं | इस तरह के रोल में अभिनय
करने वालों को आम तौर पर जूनियर आर्टिस्ट कहा जाता है. जूनियर आर्टिस्ट भले ही
बड़े मुकाम नहीं बना पाते पर उनके बिना कोई भी फिल्म पूरी नहीं हो सकती | एक फिल्म
में स्टार चाहे एक हो पर जूनियर आर्टिस्टों की संख्या सैकड़ों में होती है | इनमें से
जो अच्छा काम करते हैं और बहुत सारी चीज़ों से तालमेल बनाकर रख पाने में सफल होतें
हैं उन्हें फिल्में मिलती रहती हैं और वो लगातार पर्दे पर दिखाई देते हैं, साथ ही
उनकी दाल रोटी का जुगाड़ भी होता रहता है | जो किसी करणवश ऐसा नहीं कर पाते उनकी
हालत कमोबेश संतोष कुमार खरे जैसी ही होती है | यहाँ दौडने वाले घोड़े को ही पाला
जाता है, लंगड़े घोड़े को गोली तो नहीं मारी जाती पर उनकी किस्मत सड़क पर आवारा घूमते
पशुओं सी ही होती है | शायद इसीलिए कहा जाता है कि चढ़ते सूरज को तो दुनिया सलाम
करती है, ढलते सूरज को कौन पूछता है |
दुनिया की याद्दाश्त बड़ी छोटी है , वक्त
बड़ी चीज़ है | वक्त के साथ-साथ तो लोग बड़े-बड़े अभिनेताओं को भूल जाते हैं तो
फिर जूनियर आर्टिस्ट की बात ही क्या | पर अफसोस तब होता है जब कोई जूनियर आर्टिस्ट
बदहाली में जीने को मजबूर हो जाता है | संतोष खरे ऐसे ही एक जूनियर आर्टिस्ट थे |
संतोष भले ही जूनियर
आर्टिस्ट थे लेकिन अभिनय और क्लासिकल डांस में वो माहिर हैं । संतोष बताते हैं कि
उन्हें तीन चीजों में महारत हासिल है-अंग्रेजी, हिंदी
और उर्दू भाषा, अभिनय और नृत्य । ऐसा नहीं हैं कि उन्होंने
पैसा नहीं कमाया। लेकिन उनका कहना है कि सैकड़ों फिल्में करने के बाद भी पैसा उनके
नसीब में नहीं रहा । जब पैसा था तब उऩ्होंने अपने भविष्य की बजाय दूसरों के भविष्य
पर ज्यादा ध्यान दिया । आज जब नहीं है तो कोई उनकी सुध लेने वाला नहीं | ये समाज
की सच्चाई है | आज भी अभिनय का जिक्र छिड़ते ही उनकी आंखें चमक उठती हैं । सालों
पहले फिल्मों में उनके बोले गए डायलॉग उन्हें ज़बानी याद हैं । फिरोज़ खान के साथ
फिल्म काला सोना का डायलॉग वो बड़ी खुशी से सुनाते हैं । कई फिल्मों में हीरो के
साथ उन्होंने क्लासिकल डांस किया है। संतोष कुमार खरे को आज कोई नहीं पहचानता | उन्होने अभिनय किया,
सैंकड़ों फिल्मों में छोटी मगर महत्वपूर्ण भूमिकाएं अदा कर उन्होने अपने कलाकार
होने का फ़र्ज़ बखूबी निभाया, लेकिन आज हालात अच्छे नहीं है,
वो भीख मांग रहे हैं, दर दर की ठोकरें खा रहे हैं,
वो मजबूर हैं, बेबस हैं, उन्होने पहले
फिल्मो के लिये संघर्ष किया था, आज दो जून की रोटी के लिये
संघर्ष कर रहे हैं|
लखनऊ के स्टेशन एवं मंदिरों पर
भीख मांगता हुआ यह बुजुर्ग चाय वाले से अंग्रेजी में चाय मांगकर लोगों को हैरत में
डाल देता हैं | जब ये भिखारी सा दिखने वाला आदमी अपने साथी भिखारियों को अपने
फिल्म अभिनेता होने की बात कहता है तो वो भी इस पर यकीन नहीं करते, लेकिन सच्चाई ये ही है | लेकिन जिंदगी की भीड़
में कई चेहरे कहीं गुम हो गए, अब खरे भी खुद के चेहरे को एक
कलाकार के रूप में नहीं पहचान पाते | संतोष खरे ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि
जिंदगी इस मुकाम पर आ खड़ी होगी, जहां उन्हें दर दर की ठोकरें
खानी पडेंगी और दो जून की रोटी के लिये भीख भी मांगनी पड़ेगी | खरे आज मजबूर हैं,
वो पैरो से लाचार हैं | करीब
6 महीने पहले हजरतगंज चौराहे के पास
नशे में धुत्त एक कार चालक ने संतोष को टक्कर मार दी थी। तब से संतोष चलने-फिरने
में लाचार हैं और बैसाखियों के सहारे ही चलते हैं। दिन भर हनुमान मंदिर के बाहर
बैठे रहते हैं। एनएफडीसी जूनियर आर्टिस्टों की मदद के लिए साढ़े चार हजार रुपए
महीने की पेशन देता था लेकिन पिछले सात महीने से वो भी बंद है। छोटा भाई जबलपुर
रेलवे में एकाउंटेंट के पद पर है । वो जानता है कि उसके बड़े भाई लखनऊ में
दाने-दाने को मोहताज हैं लेकिन कभी देखने नहीं आया।
खरे की फिल्मी
कहानी -
जवानी के दिनों
में संतोष खरे के सिर पर फिल्मो का भूत सवार हो गया | फिल्मों में काम करने के
उत्सुक हज़ारों नवयुवकों की तरह वो भी अपना पुश्तैनी गांव छोड़कर मुंबई जा पहुंचे और
फिल्मो में काम के लिये संघर्ष करने लगे | 1942 में
यूपी के बांदा में पोस्टमास्टर के घर में पैदा हुए संतोष बीकॉम करने के बाद मुंबई
चले गए थे। नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन में जूनियर आर्टिस्ट के रुप में भर्ती
होने के बाद फिल्मों में छोटे-मोटे रोल मिलने लगे। पहली बार उन्हें पर्दे पर आने का मौका मिला फिल्म संत
ज्ञानेश्वर से | जिसमे खरे ने एक छोटी सी भूमिका अदा की | उसके बाद खरे को फिल्मो
में खूब मौका मिला | तब उन्हें दस रुपए
प्रतिदिन के हिसाब से मिलते थे। मदर इंडिया में सुनीत दत्त के साथ चंद मिनट के रोल
के बाद संतोष की गाड़ी चल निकली। उन्होंने दिलीप कुमार के साथ यहूदी की लड़की, मुगल-ए-आजम, कमाल अमरोही की पाकीजा सहित करीब एक
हजार फिल्मों में जूनियर आर्टिस्ट की भूमिका निभाई । सुपरहिट फिल्म गूंज उठी शहनाई
में संतोष को एक बेहतरीन रोल मिला । मेरा नाम जोकर, काला सोना,
हरिश्चंद्र, पाकीजा, मदर
इंडिया जैसी सुपरहिट फिल्मों में खरे ने काम किया. लोग इन हिट फिल्मों को आज भी
नहीं भूले लेकिन इन फिल्मों के इस चेहरे का सभी पहचानने से आज इंकार कर देते हैं.
प्यार ने रख
दिया कुंवारा
फिल्म गूंज उठी शहनाई की शूटिंग के
दौरान सतारा जिले में उन्हें एक जूनियर आर्टिस्ट आयशा से मोहब्बत हो गई थी। शूटिंग
के बाद फिल्म की यूनिट जब मुंबई लौट रही थी तो वो आयशा को रोता छोड़कर चले आए ।
आयशा को अपना न बना सके | फिल्म तो हिट
हो गई लेकिन उनकी जिंदगी की फिल्म फ्लाप हो गई. जब वो वापस लौटे तो उनकी मुहब्बत
लुट चुकी थी | इसके बाद खरे ने शादी नहीं करने का फैसला लिया और पूरी उम्र अकेले
गुजार दी |
बॉलीवुड के बाद
शरीर ने छोड़ा साथ
खरे ने फिल्मों में काम किया, लेकिन एक वक्त के बाद उन्हें फिल्मे मिलना बंद
हो गई. बॉलीवुड ने उन्हें बिसरा दिया | कुछ दिनों तक तो सब चलता रहा, लेकिन एक दिन खरे के सामने रोटी का संकट आ खड़ा हुआ | शरीर ने साथ देना छोड़ दिया, मेहनत मजदूरी अब बुढ़े शरीर से करना संभव नहीं था, लिहाजा
खरे को मजबूरी में भीख मांगकर गुजारा करना पड़ रहा है |
याद हैं सारे
फिल्मी डायलाग
खरे का आज भी उनके द्वारा
बोले गये सभी डॅायलाग जुबानी याद हैं | खरे आज भी आते जाते इन डॅायलाग्स को
दोहराते रहते हैं |पर आज हालत ये है कि संतोष बॉलीवुड का
ज़िक्र आते ही नाराज़ हो जाते हैं | और वो नाराज़ हों भी क्यों न, आखिर फिल्म संसार से उन्हें क्या मिला | जब तक काम करते थे लोग पूछते थे,
जब काम छूट गया तो एक-एक पैसे को तरस गए | राज कपूर और सुनील दत्त
जैसे नामी-गिरामी कलाकारों के साथ काम करने वाला जूनियर आर्टिस्ट आज भीख मांग कर
गुज़ारा कर रहा है | अब बॉलीवुड के संतोष खरे जैसों की सुध लेने वाला कोई है क्या
?
बांदा के रहने वाले संतोष पिछले दो
सालों से लखनऊ के दारुल शफा के बी ब्लॉक में एक तख्त पर ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं |
उनका कुछ पैसा परिवारवालों ने ले लिया और कुछ बाहर वालों ने | अब वह खालीहाथ हैं |
गुज़ारे के लिए मंदिर जाकर दान देने वाले भक्तों से जो कुछ मिलता है उसी से अपना
गुज़ारा चलाते हैं |
यह कहानी किसी एक की नहीं |
मायानगरी की माया में लाखों आज भी उलझे पड़ें हैं | किसका क्या अंजाम होगा वो अभी
समय के गर्त में कैद है | पर एक बात साफ़ है की सुंदरता के पीछे छिपी क्रूरता दिखती
भले न हो पर होती तो ज़रूर ही है | यह सच्चाई मायानगरी की भी है और समाज की भी |